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________________ १२० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद करे । क्योंकि (अब) मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति विशेष रूप से मिथ्यात्व भाव धारण कर लिया है ।' वह आनन्दस्थविर श्रमण भगवान् महावीर से यह सन्देश सुन कर वन्दना-नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थ थे, वहाँ आए । फिर गौतमादि श्रमणनिर्ग्रन्थों को बुला कर उन्हें कहा-'हे आर्यो ! आज मैं छठक्षमण के पारणे के लिए श्रमण भगवान् महावीर से अनुज्ञा प्राप्त करके श्रावस्ती नगरी में उच्च-नीच-मध्यम कुलों में इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत् यावत्-ज्ञातपुत्र को यह बात कहना यावत् हे आर्यो! तुम में से कोई भी गोशालक के साथ उसके धर्म, मत सम्बन्धी प्रतिकूल प्रेरणा मत करना, यावत् मिथ्यात्व को विशेष रूप से अंगीकार कर लिया है। [६४८] जब आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को भगवान् का आदेश कह रहे थे, तभी मंखलिपुत्र गोशालक आजीवकसंघ से परिवृत होकर हालाहला कुम्भकारी की दकान से निकल कर अत्यन्त रोष धारण किये हुए शीघ्र एवं त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया । फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से न अतिदूर और न अतिनिकट खड़ा रह कर उन्हें इस प्रकार कहने लगा-आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरे विषय में अच्छा कहते हो ! हे आयुष्मन् ! तुम मेरे प्रति ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, गोशालक मंखलिपुत्र मेरा धर्म-शिष्य है । जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह तो शुक्ल और शुक्लाभिजात हो कर काल के समय काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हो चुका है । मैं तो कौण्डिन्यायन-गोत्रीय उदायी हूँ । मैंने गौतम पुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया । मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश करके मैंने यह सातवाँ परिवृत्त-परिहार किया है । हे आयुष्मन् काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो भी सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं, अथवा सिद्ध होंगे, वे सब (पहले) चौरासी लाख महाकल्प, सात दिव्य, सात संयूथनिकाय, सात संज्ञीगर्भ सात परिवृत्त-परिहार और पांच लाख, साठ हजार छह-सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करके तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । भूतकाल में ऐसा किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में ऐसा करेंगे । जिस प्रकार गंगा महानदी जहाँ से निकलती है, और जहाँ समाप्त होती है; उसका वह मार्ग लम्बाई में ५०० योजन है और चौड़ाई में आधा योजन है तथा गहराई में पाँच-सौ धनुष है । उस गंगा के प्रमाण वाली सात गंगाएँ मिल कर एक महागंगा होती है । सात महागंगाएँ मिलकर एक सादीनगंगा होती है । सात सादीनगंगाएँ मिल कर एक मृतगंगा होती है । सात मृतगंगाएँ मिलकर एक लोहितगंगा होती है । सात लोहितगंगाएँ मिल कर एक अवन्तीगंगा होती है । सात अवन्तीगंगाएँ मिल कर परमावतीगंगा होती है । इस प्रकार पूर्वापर मिल कर कुल एक लाख, सत्रह हजार, छह सौ उनचास गंगा नदियाँ है । उन (गंगानदियों के बालुकाकण) का दो प्रकार का उद्धार कहा गया है । यथा-सूक्ष्मबोन्दिकलेवररूप और बादर-बोन्दि-कलेवररूप । उनमें से जो सूक्ष्मबोदि-कलेवररूप उद्धार है, वह स्थाप्य है । उनमें से जो बादर-बोंदिकलेवररूप उद्धार है, उसमें से सौ-सौ वर्षों में गंगा की बालू का एकएक-कण निकाला जाए और जितने काल में वह गंगा-समूहरूप कोठा समाप्त हो जाए, रजरहित निर्लेप और निष्ठित हो जाए, तब एक 'शरप्रमाण' काल कहलाता है । इस प्रकार के तीन लाख
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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