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भगवती - १५/-/-/६४५
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'इसी प्रकार, हे आनन्द ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र ने उदार पर्याय, प्राप्त की है । देवों, मनुष्यों और असुरों सहित इस लोक में 'श्रमण भगवान् महावीर', श्रमण भगवान् महावीर', इस रूप में उनकी उदार कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक फैल रहे हैं, गुंजायमान हो रहे हैं, स्तुति के विषय बन रहे हैं । इससे अधिक की लालसा करके यदि वे आज से मुझे कुछ भी कहेंगे, तो जिस प्रकार उस सर्पराज ने एक ही प्रहार से उन वणिकों को कूटाघात के समान जलाकर भस्म राशि कर डाला, उसी प्रकार मैं भी अपने तप और तेज से एक ही प्रहार में उन्हें भस्मराशि कर डालूंगा । जिस प्रकार उन वणिकों के हितकामी यावत् निःश्रेयसकामी वणिक् पर उस नागदेवता ने अनुकम्पा की और उसे भण्डोपकरण सहित अपने नगर में पहुँचा दिया था, उसी प्रकार हे आनन्द ! मैं भी तुम्हारा संरक्षण और संगोपन करूंगा । इसलिए, हे आनन्द ! तुम जाओ और अपने धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र को यह बात कह दो ।' उस समय मंखलिपुत्र गोशालक के द्वारा आनन्द स्थविर को इस प्रकार कहे जाने पर आनन्द स्थविर भयभीत हो गए, यावत् उनके मन में डर बैठ गया । वह मंखलिपुत्र गोशालक के पास से हालाहला कुम्भकारी की दूकान से निकले और शीघ्र एवं त्वरितगति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर जहाँ कोष्ठक उद्या में श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए । तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन - नमस्कार करके यों बोले-भगवन् ! मैं आज छठ- खमण के पारणे के लिए आपकी आज्ञा प्राप्त कर श्रावस्ती नगरी में यावत् जा रहा था, तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे देखा और बुला कर कहा - 'हे आनन्द ! यहाँ आओ और मेरे एक दृष्टान्त को सुन लो ।' 'हे आनन्द ! आज से बहुत काल पहले कई उन्नत और अवनत वणिक् इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत्, यावत् - अपने नगर पहुँचा दिया ।' अतः हे आनन्द ! तुम जाओ और अपने धर्मोपदेशक को यावत् कह देना । [६४६] (आनन्द स्वथिस्- ) ( प्र . ] 'भगवन् ! क्या मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात के समान जला कर भस्मराशि करने में समर्थ है ? भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह यावत् विषयमात्र है अथवा वह ऐसा करने में समर्थ भी है ?' 'हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप तेज से यावत् भस्म करने में समर्थ है । हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह विषय है । हे आनन्द ! गोशालक ऐसा करने में भी समर्थ है; परन्तु अरिहन्त भगवन्तों को नहीं है । तथापि वह उन्हें परिताप उत्पन्न करने में समर्थ है । हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोसालक का जितना तप-तेज है, उससे अनन्त - गुण विशिष्टतर तप-तेज अनगार का है, अगर भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं । हे आनन्द ! अनगार से अनन्तगुण विशिष्टतर तप-तेज स्थविर भगवन्तों का है, क्योंकि स्थविर भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं और हे आनन्द ! स्थविर भगवन्तों से अनन्त - गुण विशिष्टतर तप-तेज अर्हन्त भगवन्तों का होता है, क्योंकि अर्हन्त भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं । अतः हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप तेज द्वारा यावत् करने में प्रभु । आनन्द ! यह उसका विषय है और हे आनन्द ! वह वैसा करने में समर्थ भी है; परन्तु अर्हन्त भगवन्तों को भस्म करने में समर्थ नहीं, केवल परिताप उत्पन्न कर सकता है ।'
[६४७] (भगवान्) 'इसलिए हे आनन्द ! तू जा और गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को यह बात कह कि हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक के साथ कोई भी धार्मिक चर्चा न करे, धर्मसम्बन्धी प्रतिसारणा न करावे तथा धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार पूर्वक कोई प्रत्युपचार (तिरस्कार) न