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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अब हमें इस वल्मीक के द्वितीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें पर्याप्त उत्तम स्वर्ण प्राप्त हो । उन्होंने उस वल्मीक के द्वितीय शिखर को भी तोड़ा । उसमें से उन्हें स्वच्छ उत्तम जाति का, ताप को सहन करने योग्य महाघ-महार्ह पर्याप्त स्वर्णरत्न मिला । 'स्वर्ण प्राप्त होने से वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट हुए । फिर उन्होंने अपने बर्तन भर लिए और वाहनों को भी भर लिया । "फिर तीसरी बार भी उन्होंने परस्पर इस प्रकार परामर्श किया-देवानुप्रियो ! हमने इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त किया, फिर दूसरे शिखर को तोड़ने से विपुल उत्तम स्वर्ण प्राप्त किया । अतः हे देवानुप्रियो ! हमें अब इस वल्मीक के तृतीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे कि हमें वहाँ उदार मणिरत्न प्राप्त हों । उन्होंने उस वल्मीक के तृतीय शिखर को भी तोड़ डाला । उसमें से उन्हें विमल, निर्मल, अन्यन्त गोल, निष्कल महान् अर्थ वाले, महामूल्यवान्, महार्ह, उदार मणिरत्न प्राप्त हुए । 'इन्हें देख कर वे वणिक् अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुए । उन्होंने मणियों से अपने बर्तन भर लिये, फिर उन्होंने अपने वाहन भी भर लिये।
___ 'तत्पश्चात् वे वणिक् चौथी बार भी परस्पर विचार-विमर्श करने लगे हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त हुआ, यावत् तीसरे शिखर को तोड़ने से हमें उदार मणिरत्न प्राप्त हए । अतः अब हमें इस वल्मीक के चौथे शिखर को भी तोड़ना क्षेयस्कर है, जिससे हे देवानुप्रियो ! हमें उसमें से उत्तम, महामूल्यवान्, महार्ह एवं उदार वज्ररत्न प्राप्त होंगे । 'यह सुनकर उन वणिकों में एक वणिक् जो उन सबका हितैषी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पक और निःश्रेयसकारी तथा हित-सुख-निःश्रेयसकामी था, उसने अपने उन साथी वणिकों से कहा-देवानुप्रियो ! अतः अब बस कीजिए । अपने लिए इतना ही पर्याप्त है । अब यह चौथा शिखर मत तोड़ो । कदाचित् चौथा शिखर तोड़ना हमारे लिये उपद्रवकारी हो सकता है । 'उस समय हितैषी, सुखकामी यावत हित-सुख-निःश्रेयस्कामी उस वणिक के इस कथन यावत प्ररूपण पर उन वणिकों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की । उन्होंने उस वल्मीक के चतुर्थ शिखर को भी तोड़ डाला । शिखर टूटते ही वहाँ उन्हें एक दृष्टिविष सर्प का स्पर्श हुआ, जो उग्रविषवाला, प्रचण्ड विषधर, घोरविषयुक्त, महाविष से युक्त, अतिकाय, महाकाय, मसि और मूषा के समान काला, दृष्टि के विष से रोषपूर्ण, अंजन-पुंज के समान कान्ति वाला, लाल-लाल आँखों वाला, चपल एवं चलती हुई दो जिह्वा वाला, पृथ्वीतल की वेणी के समान, उत्कट स्पष्ट कुटिल जटिल कर्कश विकट फटाटोप करने में दक्ष, लोहार की धौंकनी के समान धमधमायमान शब्द करने वाला, अप्रत्याशित प्रचण्ड एवं तीव्र रोष वाला, कुक्कुर के मुख से भसने के समान, त्वरित चपल एवं धम-धम शब्द वाला था । उस दृष्टिविष सर्प का उन वणिकों से स्पर्श होते ही वह अत्यन्त कुपित हुआ । यावत् मिसमिसाट शब्द करता हुआ शनैः शनैः उठा और सरसराहट करता हुआ वल्मीक के शिखर-तल पर चढ़ गया । फिर उसने सूर्य की ओर टकटकी लगा कर देखा । उसने उस वणिकवर्ग की ओर अनिमेष दृष्टि से चारों ओर देखा । उस दृष्टिविष सर्प द्वारा वे वणिक सब
ओर अनिमेष दृष्टि से देखे जाने पर किराने के समान आदि माल एवं बर्तनों व उपकरणों सहित एक ही प्रहार से कूटाघात के समान तत्काल जला कर राख का ढेर कर दिए गए । उन वणिकों में से जो वणिक् उन वणिकों का हितकामी यावत् हित-सुख-निःश्रेयसकामी, था उस पर नागदेवता ने अनुकम्पायुक्त होकर भण्डोपकरण सहित उसे अपने नगर में पहुंचा दिया ।