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भगवती-१५/-/-/६४५
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और संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था । उस दिन आनन्द स्थविर ने अपने छठक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय किया, यावत्-गौतमस्वामी के समान भगवान् से आज्ञा मांगी और उसी प्रकार ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करता हुआ हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान के पास से गुजरा । जब मंखलिपुत्र गोशालक के आनन्द स्थविर को हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान के निकट से जाते हुए देखा, तो बोला-'अरे आनन्द ! यहाँ आओ, एक महान् दृष्टान्त सुन लो ।' गोशालक के द्वार इस प्रकार कहने पर आनन्द स्थविर, हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान में (बैठे) गोशालक के पास आया ।
तदनन्तर मंखलिपुत्र गोशालक ने आनन्द स्थविर से इस प्रकार कहा-हे आनन्द ! आज से बहुत वर्षों पहले की बात है । कई उच्च एवं नीची स्थिति के धनार्थी, धनलोलुप, धन के गवेषक, अर्थाकांक्षी, अर्थपिपासु वणिक्, धन की खोज में नाना प्रकार के किराने की सुन्दर वस्तुएँ, अनेक गाड़े-गाड़ियों में भर कर और पर्याप्त भोजन-पानरूप पाथेय लेकर ग्रामरहित, जलप्रवाह से रहित, सार्थ आदि के आगमन से विहीन तथा लम्बे पथ वाली एक महाअटवी में प्रविष्ट हुए । 'ग्रामरहित, जल-प्रवाहरहित, सार्थों के आवागमन से रहित उस दीर्घमार्ग वाली अटवी के कुछ भाग में, उन वणिकों के पहुँचने के बाद, अपने साथ पहले का लिया हुआ पानी क्रमशः पीते-पीते समाप्त हो गया ।।
'जल समाप्त हो जाने से तृषा से पीडित वे वणिक् एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् महा-अटवी के कुछ भाग से पहुंचते ही हमारे साथ में पहले से लिया पानी क्रमशः पीते-पीते समाप्त हो गया है, इसलिए अब हमें इसी अग्राम्य यावत् अटवी में चारों ओर पानी की शोध-खोज करना श्रेयस्कर है । इस प्रकार विचार करके उन वणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उस ग्रामरहित यावत् अटवी में वे सब चारों
ओर पानी की शोध-खोज करने लगे । तब वे एक महान् वनखण्ड में पहुँचे, जो श्याम, श्यामआभा से युक्त यावत् प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् सुन्दर था । उस वनखण्ड के ठीक मध्यभाग में उन्होंने एक बड़ा वल्मीक देखा । उस वल्मीक के सिंह के स्कन्ध के केसराल के समान ऊँचे उठे हुए चार शिखराकार-शरीर थे । वे शिखर तिर्छ फैले हुए थे । नीचे अर्द्धसर्प के समान थे । अर्द्ध सर्पाकार वल्मीक आह्लादोत्पादक यावत् सुन्दर थे । 'उस वल्मीक को देखकर वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट हो कर और परस्पर एक दूसरे को बुला कर यों कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् अटवी में सब ओर पानी की शोध-खोज करते हुए हमें यह महान् वनखण्ड मिला है, जो श्याम एवं श्याम-आभा के समान है, इत्यादि । इस वल्मीक के चार ऊँचे उठे हुए यावत् सुन्दर शिखर हैं । इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है; जिससे हमें यहाँ बहुत-सा उत्तम उदक मिलेगा ।' फिर उस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ते हैं, जिसमें से उन्हें स्वच्छ, पथ्य-कारक, उत्तम, हल्का और स्फटिक के वर्ण जैसा श्वेत बहुत-सा श्रेष्ठ जल प्राप्त हुआ । 'इसके बाद वे वणिक हर्षित और सन्तुष्ट हुए । उन्होंने वह पानी पिया, अपने बैलों आदि वाहनों को पिलाया और पानी के बर्तन भर लिये ।
_ 'तत्पश्चात् उन्होंने दूसरी बार भी परस्पर इस प्रकार वार्तालाप किया हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से बहुत-सा उत्तम जल प्राप्त हुआ है । अतः देवानुप्रियो !