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________________ ११६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद यावत् गर्जने लगे, इत्यादि यावत् वे तिलपुष्प तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए हैं । अतः हे गोशालक ! यही वह तिल का पौधा है, जो निष्पन्न हुआ है, अनिष्पन्न नहीं रहा है और वे ही सात तिलपुष्प के जीव मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए हैं । हे गोशालक ! वनस्पतिकायिक जीव मर-मर कर उसी वनस्पतिकाय के शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैं । तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन यावत् प्ररूपण पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की । बल्कि उस कथन के प्रति अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करता हुआ वह उस तिल के पौधे के पास पहुँचा और उसकी तिलफली तोड़ी, फिर उस हथेली पर मसल कर सात तिल बाहर निकाले । उस मंखलिपुत्र गोशालक को उन सात तिलों को गिनते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-सभी जीव इस प्रकार परिवृत्त्य-परिहार करते हैं । हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह परिवर्त्त है और हे गौतम ! मुझसे मंखलिपुत्र गोशालक का यह अपना पृथक् विचरण है । [६४३] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक नखसहित एक मुट्ठी में आवें, इतने उड़द के बाकलों से तथा एक चुल्लूभर पानी से निरन्तर छठ-छठ के तपश्चरण के साथ दोनों बांहें ऊँची करके सूर्य के सम्मुख खड़ा रह कर आतापना-भूमि में यावत् आतापना लेने लगा । ऐसा करते हुए गोशालक को छह मास के अन्त में, संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्या प्राप्त हो गई। [६४४] इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक के पास किसी दिन ये छह दिशाचर प्रकट हुए। यथा-शोण इत्यादि सब कथन पूर्ववत्, यावत्-जिन न होते हुए भी अपने आपको जिन शब्द से प्रकट करता हुआ विचरण करने लगा है । अतः हे गौतम ! वास्तव में मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है, वह 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत् 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रसिद्ध करता हआ विचरता है । वस्तुतः मंखलिपुत्र गोशालक अजिन है; जिनप्रलापी है, यावत जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है । तदनन्तर वह अत्यन्त बड़ी परिषद् शिवराजर्षि के समान धर्मोपदेश सुन कर यावत् वन्दना-नमस्कार कर वापस लौट गई । तदनन्तर श्रावस्ती नगरी में श्रृंगाटक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से यावत् प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! जो यह गोशालक मंखलि-पुत्र अपने-आप को 'जिन' हो कर, 'जिन' कहता यावत् फिरता है; यह बात मिथ्या है । श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि उस मंखलिपुत्र गोशालक का ‘मंखली' नामक मंख पिता था । उस समय उस मंखली का...इत्यादि पूर्वोक्त समस्त वर्णन; यावत्-वह जिन नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकट करता है । यावत् विचरता है । श्रमण भगवान् महावीर 'जिन' हैं, 'जिन' कहते हुए यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं । जब गोशालक ने बहुतसे लोगों से यह बात सुनी, तब उसे सुनकर और अवधारण करके वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, यावत्, मिसमिसाहट करता हुआ आतापनाभूमि से नीचे उतरा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान पर आया । वह हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान पर आजीविकसंघ से परिवृत हो कर अत्यन्त अमर्ष धारण करता हुआ इसी प्रकार विचरने लगा। [६४५] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का अन्तेवासी आनन्द नामक स्थविर था । वह प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था और निरन्तर छठ-छठ का तपश्चरण करता हुआ
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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