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भगवती-१५/-/-/६४१
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कुपित हो उठा यावत् क्रोध से दाँत पीसता हुआ आतापनाभूमि से नीचे उतरा । फिर तैजससमुद्घात करके वह सात-आठ कदम पीछे हटा । इस प्रकार मंखलिपुत्र गोशालक के भस्म करने के लिए उसने अपने शरीर से तेजोलेश्या बाहर निकाली । तदनन्तर, हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक पर अनुकम्पा करने के लिए, वैश्यायन बालतपस्वी की तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए शीतल तेजोलेश्या बाहर निकाली । जिससे मेरी शीतल तेजोलेश्या से वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हो गया । मेरी शीतल तेजोलेश्या से अपनी-उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ तथा गोशालक के शरीर को थोड़ी या अधिक पीड़ा या अवयवक्षति नहीं हुई जान कर वैश्यायन बालतपस्वी ने अपनी उष्ण तेजोलेश्या वापस खींच ली और उष्ण तेजोलेश्या को समेट कर उसने मुझ से कहा-'भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन् ! मैं समझ गया ।'
मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझ से यों पूछा-'भगवन् ! इस जुओं के शय्यातर ने आपको क्या कहा-'भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन् ! मैं समझ गया ?' इस पर हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक से मैंने यों कहा-हे गौशालक ! ज्यों ही तुमने वैश्यायन बालतपस्वी को देखा, त्यों ही तुम मेरे पास से शनैः शनैः खिसक गए और जहाँ वैश्यायन बालतपस्वी था, वहाँ पहुँच गए । यावत् तब वह एकदम कुपित हुआ, यावत् वह पीछे हटा और तुम्हारा वध करने के लिए उसने अपने शरीर से तेजोलेश्या निकाली । हे गोशालक ! तब मैंने तुझ पर अनुकम्पा करने के लिए वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए अपने अन्तर से शीतल तेजोलेश्या निकाली; यावत् उसने अपनी उष्ण तेजोलेश्या वापस खींच ली । फिर मुझे कहा'भगवन् ! मैं जान गया, भगवन् ! मैंने भलीभांति समझ लिया ।' मंखलिपुत्र गोशालक मेरे से यह बात सुनकर और अवधारण करके डरा; यावत् भयभीत होकर मुझे वन्दन-नमस्कार करके बोला'भगवन् ! संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त होती है ?' हे गौतम ! तब मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा 'गोशालक! नखसहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें तथा एक विकटाशय जल से निरन्तर छठ-छठ तपश्चरण के साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर यावत् आतापना लेता रहता है, उस व्यक्ति को छह महीने के अन्त में संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है ।' यह सुनकर मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन को विनयपूर्वक सम्यक् रूप से स्वीकार किया ।
[६४२] हे गौतम ! इसके पश्चात् किसी एक दिन मंखलिपुत्र गोशालक के साथ मैंने कूर्मग्रामनगर से सिद्धार्थग्रामनगर की ओर विहार के लिए प्रस्थान किया । जब हम उस स्थान के निकट आए, जहाँ वह तिल का पौधा था, तब गोशालक मंखलिपुत्र ने मुझ से कहा-'भगवन् !
आपने मुझे उस समय कहा था, यावत् प्ररूपणा की थी कि हे गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा, यावत् तिलपुष्प के सप्त जीव मर कर सात तिल के रूप में पुनः उत्पन्न होंगे, किन्तु
आपकी वह बात मिथ्या हुई, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिख रहा है कि यह तिल का पौधा उगा ही नहीं हे गौतम ! तब मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा-हे गोशालक ! जब मैंने तुझ से ऐसा कहा था, यावत् ऐसी प्ररूपणा की थी, तब तूने मेरी उस बात पर न तो श्रद्धा की, न प्रतीति की, न ही उस पर रुचि की, बल्कि उक्त कथन पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि न करके तू मुझे लक्ष्य करके कि 'यह मिथ्यावादी हो जाएँ' ऐसा विचार कर यावत् उस तिल के पौधे को तूने मिट्टी सहित उखाड़ कर एकान्त में फेंक दिया । लेकिन हे गोशालक ! उसी समय आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए