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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
मनोज्ञ भूमि में मेरे साथ उसकी भेंट हुई । उस समय मंखलिपुत्र गोशालक ने प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर तीन बार दाहिनी ओर से मेरी प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहाभगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका अन्तेवासी हूँ । तब हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात को स्वीकार किया । तत्पश्चात् हे गौतम ! मैं मंखलिपुत्र गोशालक के साथ उस प्रणीत भूमि में छह वर्ष तक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करता हुआ अनित्यता-जागरिका करता हुआ विहार करता रहा ।
[६४०] तदनन्तर, हैं गौतम ! किसी दिन प्रथम शरत्-काल के समय, जब वृष्टि का अभाव था; मंखलिपुत्र गोशालक के साथ सिद्धार्थग्राम नामक नगर से कूर्मग्राम नामक नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थान कर चुका था । उस समय सिद्धार्थग्राम और कूर्मग्राम के बीच में तिल का एक बड़ा पौधा था । जो पत्र-पुष्प युक्त था, हराभरा होने की श्री से अतीव शोभायमान हो रहा था । गोशालक ने उस तिल के पौधे को देखा । फिर मेरे पास आकर वन्दन-नमस्कार करके पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं? इन सात तिलपुष्पों के जीव मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे? इस पर हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहागोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा । नहीं निष्पन्न होगा, ऐसी बात नहीं है और ये सात तिल के फूल मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न होंगे ।
इस पर मेरे द्वारा कही गई इस बात पर मंखलिपुत्र गोशालक ने न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न ही रुचि की । इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं करता हुआ, 'मेरे निमित्त से यह मिथ्यावादी हो जाएँ, ऐसा सोच कर गोशालक मेरे पास से धीरे धीरे पीछे खिसका और उस तिल के पौधे के पास जाकर उस तिल के पौधे को मिट्टी सहित समूल उखाड़ कर एक ओर फैंक दिया । पौधा उखाड़ने के बाद तत्काल आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए । वे बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गर्जने लगे । तत्काल बिजली चमकने लगी और अधिक पानी और अधिक मिट्टी का कीचड़ न हो, इस प्रकार से कहीं-कहीं पानी की बूंदाबांदी होकर रज और धूल को शान्त करने वाली दिव्य जलवृष्टि हुई, जिससे तिल का पौधा वहीं जम गया । वह पुनः उगा और बद्धमूल होकर वहीं प्रतिष्ठित हो गया और वे सात तिल के फूलों के जीव मर कर पुनः उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए ।
[६४१] तदनन्तर, हे गौतम ! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया । उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक बालतपस्वी निरन्तर छठ-छठ तपःकर्म करने के साथ-साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर सूर्य के सम्मुख खड़ा होकर आतापनभूमि में आतापना ले रहा था । सूर्य की गर्मी से तपी हुई जूएँ चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थीं और वह तपस्वी, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की दया के लिए बार-बार पड़ती हुई उन जूओं को उठा कर बार-बार वहीं की वहीं रखता जाता था ।।
तभी मंखलिपुत्र गोशालक ने वैश्यायन बालतपस्वी को देखा, मेरे पास से धीरे-धीरे खिसक कर वैश्यायन बालतपसवी के निकट आया और उसे कहा-"क्या आप तत्त्वज्ञ या तपस्वी मुनि हैं या जूओं के शय्यातर हैं ?" वैश्यायन बालतपस्वी ने मंखलिपुत्र गोशालक के इस कथन को
आदर नहीं दिया और न ही इसे स्वीकार किया, किन्तु वह मौन रहा । इस पर मंखलिपुत्र गोशालक ने दूसरी और तीसरी बार वैश्यायन बालतपस्वी को फिर इसी प्रकार वही प्रश्न पूछा-तब वह शीघ्र