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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
(शतक-१५) [६३७] भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो ।
उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्व-दिशाभाग में कोष्ठक नामक चैत्य था । उस श्रावस्ती नगरी में आजीविक (गोशालक) मत की उपासिका हालाहला नाम की कुम्भारिन रहती थी । वह आढ्य यावत् अपरिभूत थी। उसने आजीविकसिद्धान्त का अर्थ प्राप्त कर लिया था, सिद्धान्त के अर्थ को ग्रहण कर लिया था, उसका अर्थ पूछ लिया था, अर्थ का निश्चय कर लिया था । उसकी अस्थि और मज्जा प्रेमानुराग से रंग गई थी । 'हे आयुष्यमन् ! यह आजीविकसिद्धान्त ही सच्चा अर्थ है, यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ हैं', इस प्रकार वह आजीविकसिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करती हुई रहती थी । उस काल उस समय में चौवीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशालक, हालाहला कुम्भारिन की कुम्भकारापण में आजीवकसंघ से परिवृत होकर आजीविकसिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करता हआ विचरण करता था ।
तदनन्तर किसी दिन उस मंखलिपुत्र गोशालक के पास ये छह दिशाचर आए यथा-शोण, कनन्द, कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निर्वेश्यायन और गौतम पुत्र अर्जुन । तत्पश्चात् उन छह दिशाचरों ने पूर्वश्रुत में कथित अष्टांग निमित्त, (नौवें गीत-) मार्ग तथा दसवें (नृत्य-) मार्ग को अपने अपने मति-दर्शनों से पूर्वश्रुत में से उद्धृत किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के पास उपस्थित हुए । तदनन्तर वह मंखलिपुत्र गोशालक, उस अष्टांग महानिमित्त के किसी उपदेश द्वारा सर्व प्राणों, सभी भूतों, समस्त जीवों और सभी सत्त्वों के लिए इन छह अनितिक्रमणीय बातों के विषय में उत्तर देने लगा । वे छह बातें ये हैं-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन और मरण । और तब मंखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महा-निमित्त के स्वल्पदेशमात्र से श्रावस्ती नगरी में जिन नहीं होते हुए भी, "मैं जिन हूँ' इस प्रकार प्रलाप करता हुआ, अर्हन्त न होते हुए भी, 'मैं अर्हत् हूँ', इस प्रकार का बकवास करता हुआ, केवली न होते हुए भी, 'मैं केवली हूँ', इस प्रकार का मिथ्याभाषण करता हुआ, सर्वज्ञ न होते हुए भी 'मैं सर्वज्ञ हूँ', इस प्रकार मृषाकथन करता हुआ और जिन न होते हुए भी अपने लिए 'जिनशब्द' का प्रयोग करता था ।
[६३८] इसके बाद श्रावस्ती नगरी में श्रृंगाटक पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! निश्चित ही कि गोशालक मंखलिपुत्र 'जिन' हो कर अपने आप को 'जिन' कहता हुआ, यावत् 'जिन' शब्द में अपने आपको प्रकट करता हुआ विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना जाए ? उस काल, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर वहाँ पधारे, यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर वापिस चली गई । श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् छठ-छठ पारणा करते थे; इत्यादि वर्णन दूसरे शतक के पांचवें निर्ग्रन्थ-उद्देशक के अनुसार समझना। यावत् गोचरी के लिए भ्रमण करते हुए गौतमस्वामी ने बहुत-से लोगों के शब्द सुने, बहुत-से लोक परस्पर इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे कि देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन हो कर अपने आपको जिन कहता हुआ, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है । उसकी यह बात कैसे मानी जाए ? भगवान् गौतम को बहुत-से लोगों से यह बात सुन कर एवं मन में अवधारण कर यावत् प्रश्न पूछने की श्रद्धा उत्पन्न हुई, यावत् भगवान् को