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भगवती-१५/-/-/६३८
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आहार-पानी दिखाया । फिर यावत् पर्युपासना करते हुए बोले- यावत् गोशालक 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, तो हे भगवन् ! उसका यह कथन कैसा है ? मैं मंखलिपुत्र गोशालक का जन्म से लेकर अन्त तक का वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ।
श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से कहा-गौतम ! बहुत-से लोग, जो परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपित करते हैं कि मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' हो कर तथा अपने आपको 'जिन' कहता हुआ यावत् 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, यह बात मिथ्या है । हे गौतम ! मैं कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि मंखलिपुत्र गोशालक का, मंख जाति का मंखली नाम का पिता था । उस मंखजातीय मंखली की भद्रा नाम की भार्या थी । वह सुकुमाल हाथ-पैर वाली यावत् प्रतिरूप थी । किसी समय वह भद्रा नामक भार्या गर्भवती हुई । 'शरवण' नामक सनिवेश था । वह ऋद्धि-सम्पन्न, उपद्रव-रहित यावत् देवलोक के समान प्रकाश वाला और मन को प्रसन्न करने वाला था, यावत् प्रतिरूप था । उन सन्निवेश में 'गोबहुल' नामक एक ब्राह्मण रहता था । वह आढ्य यावत् अपराभूत था । वह ऋग्वेद आदि वैदिकशास्त्रों के विषय में भलीभांति निपुण था । उस गोबहुल ब्राह्मण की एक गोशाला थी।
एक दिन वह मंखली नामक भिक्षाचर (मंख) अपनी गर्भवती भद्रा भार्या को साथ लेकर निकला । वह चित्रफलक हाथ में लिये हुए चित्र बता कर आजीविका करने वाले भिक्षुकों की वृत्ति से (मंखत्व से) अपना जीवनयापन करता हुआ, क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ जहाँ शरवण नामक सन्निवेश था और जहाँ गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला थी, वहाँ आया । फिर उसने गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में अपना भाण्डोपकरण रखा । वह शवण सन्निवेश में उच्च-नीच-मध्यम कुलों के गृहसमूह में भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुआ वसति में चारों
ओर सर्वत्र अपने निवास के लिए स्थान की खोज करने लगा । सर्वत्र पूछताछ और गवेषणा करने पर भी जब कोई निवासयोग्य स्थान नहीं मिला तो उसने उसी गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में वर्षावास बिताने के लिए निवास किया । उस भद्रा भार्या ने पूरे नौ मास और साढ़े सात रात्रिदिन व्यतीत होने पर एक सुकुमाल हाथ-पैर वाले यावत् सुरूप पुत्र को जन्म दिया । ग्यारहवाँ दिन बीत जाने पर यावत् बारहवें दिन उस बालक के माता-पिता ने इस प्रकार का गौण, गुणनिष्पन्न नामकरण किया कि हमारा यह बालक गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला में जन्मा है, इसलिए हमारे इस बालक का नाम गोशालक हो । तदनन्तर वह बालक गोशालक बाल्यावस्था को पार करके एवं विज्ञान से परिपक्व बुद्धि वाला होकर यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ । तब उसने स्वयं व्यक्तिगत रूप से चित्रफलक तैयार किया । उस चित्रफलक को स्वयं हाथ में लेकर मंखवृत्ति से आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा ।
[६३९] उस काल उस समय में, हे गौतम ! मैं तीस वर्ष तक गृहवास में रह कर, मातापिता के दिवंगत हो जाने पर भावना नामक अध्ययन के अनुसार यावत् एक देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करके मुण्डित हुआ और गृहस्थवास को त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हुआ । हे गौतम ! मैं प्रथम वर्ष में अर्द्धमास-अर्द्धमास क्षमण करते हुए अस्थिक ग्राम की निश्रा में, प्रथम वर्षाऋतु के
अवसर पर वर्षावास के लिए आया । दूसरे वर्ष में मैं मास-मास-क्षमण करता हुआ, क्रमशः विचरण करता और ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ राजगृह नगर में नालन्दा पाड़ा के बाहर, जहाँ