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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
बिना तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को एक बार उल्लंघन करने अथवा बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महामुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को उल्लंघन एवं प्रलंघन करने में समर्थ है ? हाँ, समर्थ है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
| शतक-१४ उद्देशक-६ । [६१५] राजगृह नगर में यावत् पूछा- भगवन् ! नैरयिक जीव किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? किस तरह परिणमाते हैं ? उनकी योनि क्या है ? उनकी स्थिति का क्या कारण है ? गौतम ! नैरयिक जीव पुद्गलों का आहार करते हैं और उसका पुद्गल-रूप परिणाम होता है । उनकी योनि शीतादि स्पर्शमय पुद्गलों वाली है । आयुष्य कर्म के पुद्गल उनकी स्थिति के कारण हैं । बन्ध द्वारा वे ज्ञानावरणीयादि कर्म के पुद्गलों को प्राप्त हैं । उनके नारकत्वनिमित्तभूत कर्म निमित्तरूप हैं । कर्मपुद्गलों के कारण उनकी स्थिति है । कर्मों के कारण ही वे विपर्यास को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना।
[६१६] भगवन् ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का आहार करते हैं अथवा अवीचिद्रव्यों का ? गौतम ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं | भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता कि नैरयिक...यावत् अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं ? गौतम ! जो नैरयिक एक प्रदेश न्यून द्रव्यों का आहार करते हैं, वे वीचिद्रव्यों का आहार करते हैं और जो परिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे नैरयिक अवीचिद्रव्यों का आहार करते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए ।
[६१७] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र भोग्य मनोज्ञ दिव्य स्पर्शादि विषयभोगों का उपभोग करना चाहता है, तब वह किस प्रकार करता है ? गौतम ! उस समय देवेन्द्र देवराज शक्र, एक महान् चक्र के सदृश गोलाकार स्थान की विकुर्वणा करता है, जो लम्बाई-चौड़ाई में एक लाख योजन होता है । उसकी परिधि तीन लाख कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल होती है । चक्र के समान गोलाकार उस स्थान के ऊपर अत्यन्त समतल एवं रमणीय भूभाग होता है, यावत् मणियों का मनोज्ञ स्पर्श होता है; वह उस चक्राकार स्थान के ठीक मध्यभाग में एक महान् प्रासादावतंसक की विकुर्वणा करता है । जो ऊँचाई में पांच सौ योजन होता है । उसका विष्कम्भ ढाई सौ योजन होता है । वह प्रासाद अत्यन्त ऊँचा और प्रभापुञ्ज से व्याप्त होने से मानो वह हँस रहा हो, इत्यादि यावत्-वह दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होता है उस प्रासादावतंसक का उपरितल पद्म लताओं के चित्रण से विचित्र यावत् प्रतिरूप होता है । भीतर का भूभाग अत्यन्त सम और रमणीय होता है, इत्यादि वर्णन-वहाँ मणियों का स्पर्श होता है, तक जानना । वहाँ लम्बाई-चौड़ाई में आठ योजन की मणिपीठिका होती है, जो वैमानिक देवों की मणिपीठिका के समान होती है । उस मणिपीठिका के ऊपर वह एक महान् देवशय्या की विकुर्वणा करता है । उस देवशय्या का वर्णन करना चाहिए । वहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र अपने-अपने परिवारसहित आठ अग्रमहिषियों के साथ गन्धर्वानीक और नाट्यानीक, के साथ, जोर-जोर से आहरत हुए नाट्य, गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करता है ।
भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करना चाहता है, तब