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________________ भगवती-१४/-/६/६१७ १०३ वह कैसे करता है ? शक्र के अनुसार समग्र कथन ईशान इन्द्र के लिए करना चाहिए । इसी प्रकार सनत्कुमार के विषय में भी कहना चाहिए । विशेषता यह है कि उनके प्रासादावतंसक की ऊँचाई छह सौ योजन और विस्तार तीन सौ योजन होता है । आठ योजन की मणिपीठिका का उसी प्रकार वर्णन करना चाहिए । उस मणिपीठिका के ऊपर वह अपने परिवार के योग्य आसनों सहित एक महान् सिंहासन की विकुर्वणा करता है । वहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देवों के साथ यावत् दो लाख ८८ हजार आत्मरक्षक देवों के साथ और सनत्कुमार कल्पवासी बहुत-से वैमानिक देव-देवियों के साथ प्रवृत्त होकर महान् गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य विषयभोगों का उपभोग करता हुआ विचरण करता है । सनत्कुमार के समान प्राणत और अच्युत देवेन्द्र तक कहना । विशेष यह है कि जिसका जितना परिवार हो, उतना कहना । अपने-अपने कल्प के विमानों की ऊँचाई के बराबर प्रासाद की ऊँचाई तथा उनकी ऊँचाई से आधा विस्तार कहना, यावत् अच्युत देवलोक का प्रासादावतंसक नौ सौ योजन ऊँचा है और चार सौ पचास योजन विस्तृत है । हे गौतम ! उसमें देवेन्द्र देवराज अच्युत, दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । | शतक-१४ उद्देशक-७ | [६१८] राजगृह नगर में यावत् परिषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई । श्रमण भगवान् महावीर ने, कहा-गौतम ! तू मेरे साथ चिर-संश्लिष्ट है, हे गौतम ! तू मेरा चिर-संस्तुत है, तू मेरा चिर-परिचित भी है । गौतम ! तू मेरे साथ चिर-सेवित या चिरप्रीत है । चिरकाल से, हे गौतम ! तू मेरा अनुगामी है । तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है, गौतम ! इससे पूर्व के भवो में (स्नेह सम्बन्ध था) । अधिक क्या कहा जाए, इस भव में मृत्यु के पश्चात्, इस शरीर से छूट जाने पर, इस मनुष्यभव से च्युत हो कर हम दोनों तुल्य और एकार्थ तथा विशेषतारहित एवं किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित हो जाएँगे । . [६१९] भगवन् ! जिस प्रकार अपन दोनों इस अर्थ को जानते-देखते हैं, क्या उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं ? हाँ, गौतम ! अपन दोनों के समान अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं । भगवन् ! क्या कारण है कि जिस प्रकार हम दोनों इस बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी जानते-देखते हैं ? गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को (अवधिज्ञान की लब्धि से) मनोद्रव्य की अनन्त वर्गणाएँ लब्ध हैं, प्राप्त हैं, अभिसमन्वागत होती हैं । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् जानते-देखते हैं । [६२०] भगवन् ! तुल्य कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम छह प्रकार का यथाद्रव्यतुल्य, क्षेत्रतुल्य, कालतुल्य, भवतुल्य, भावतुल्य और संस्थानतुल्य । भगवन् ! 'द्रव्यतुल्य' द्रव्यतुल्य क्यों कहलाता है ? गौतम ! एक परमाणु-पुद्गल, दूसरे परमाणु-पुद्गल से द्रव्यतः तुल्य है, किन्तु परमाणु-पुद्गल से भिन्न दूसरे पदार्थों के साथ द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, किन्तु द्विप्रदेशिक स्कन्ध से व्यतिरिक्त दूसरे स्कन्ध के साथ द्विप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध तक कहना चाहिए । एक तुल्य-संख्यात
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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