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भगवती-१४/-/५/६१२
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अग्नि के मध्य में हो कर जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । जो अग्नि के मध्य में हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर अग्नि आदि शस्त्र का असर नहीं होता । इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई असुरकुमार जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । इसी प्रकार स्तनितकुमार देव तक कहना । एकेन्द्रियों के विषय में नैरयिको के समान कहना ।
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव अग्निकाय के मध्य में से हो कर जा सकते हैं ? असुरकुमारों के अनुसार द्वीन्द्रियों के विषय में कहना । परन्तु इतनी विशेषता है-भगवन् ! जो द्वीन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में हो कर जाते हैं, वे जल जाते हैं ? हाँ, वे जल जाते हैं । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार का कथन चतुरिन्द्रिय तक करना । भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव अग्नि के मध्य में होकर जा सकते हैं ? गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के हैं, यथा-विग्रहगति समापन्नक और अविग्रहगतिसमापन्नक । जो विग्रहगतिसमापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हैं, उनका कथन नैरयिक के समान जानना, यावत् उन पर शस्त्र असर नहीं करता । अविग्रहसमापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के हैं-ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त | जो ऋद्धिप्राप्त, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता है । जो अग्नि में हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? यह अर्थ समर्थ नहीं, क्योकि उस पर शस्त्र असर नहीं करता । परन्तु जो ऋद्धि-अप्राप्त पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से भी कोई अग्नि में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता है । जो अग्नि में से हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? हाँ, वह जल जाता है । इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कोई अग्नि में से हो कर जाता है और कोई नहीं जाता है । इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना । वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना ।
[६१३] नैरयिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं । यथा अनिष्ट शब्द, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गन्ध, अनिष्ट रस, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्य, अनिष्ट यशःकीर्ति और अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम । असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा-इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए ।
पृथ्वीकायिक जीव छह स्थानों का अनुभव करते रहते हैं । यथा-इष्ट-अनिष्ट स्पर्श, इष्टअनिष्ट गति, यावत्, इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना । द्वीन्द्रिय जीव सात स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथाइष्टानिष्ट रस इत्यादि, शेष एकेन्द्रिय जीवों के समान । त्रीन्द्रिय जीव आठ स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा-इष्टानिष्ट गन्ध इत्यादि, शेष द्वीन्द्रिय जीवों के समान । चतुरिन्द्रिय जीव नौ स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा-इष्टानिष्ट रूप इत्यादि शेष त्रीन्द्रिय जीवों के समान | पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा इष्टानिष्ट शब्द यावत् इष्टानिष्ट पुरुषकारपराक्रम । इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों तक असुरकुमारों के समान कहना ।
[६१४] भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये