________________
भगवती-३/-/१/१६१
संल्लेखना तप से आत्मा को सेवित कर आहार-पानी का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन संथारा करूं और मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरण करूं; मेरे लिए यही उचित है ।' यों विचार करके प्रभातकाल होते ही यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर यावत् पूछा । उस ने एकान्त स्थान में उपकरण छोड़ दिये । फिर यावत् आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान किया और पादपोपगमन नामक अनशन अंगीकार किया ।
[१६१] उस काल उस समय में बलिचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहित से विहीन थी । उन बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने तामली बालतपस्वी को अवधिज्ञान से देखा । देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया, और कहा'देवानुप्रियो ! बलिचंचा राजधानी इन्द्र से विहीन और पुरोहित से भी रहित है । हे देवानुप्रियो ! हम सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित (रहे) हैं, अपना सब कार्य इन्द्र की अधीनता में होता है | यह तामली बालतपस्वी ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर ईशान कोण में निवर्तनिक मंडल का आलेखन करके, संलेखना तप की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान कर, पादपोपगमन अनशन को स्वीकार करके रहा हुआ है । अतः देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि तामली बालतपस्वी को बलिचंचा राजधानी में (इन्द्र रूप में) स्थिति करने का संकल्प कराएँ ।' ऐसा करके परस्पर एक-दूसरे के पास वचनबद्ध हुए । फिर बलिचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकले और जहाँ रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत था, वहाँ आए । उन्होंने वैक्रिय समुद्घात से अपने आपको समवहत किया, यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की । फिर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जयिनी, छेक सिंहसदृश, शीघ्र, दिव्य
और उद्धृत देवगति से तिरछे असंख्येय द्वीप-समुद्रों के मध्य में होते हुए जहाँ जम्बूद्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, जहाँ ताम्रलिप्ती नगरी थी, जहाँ मौर्यपुत्र तामली तापस था, वहाँ आए, और तामली बालतपस्वी के ऊपर (आकाश में) चारों दिशाओं और चारों कोनों में सामने खड़े होकर दिव्य देवकृद्धि, दिव्य देवधुति, दिव्य देवप्रभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाटकविधि बतलाई । . इसके पश्चात् तामली बालतपस्वी की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, उसे वन्दन-नमस्कार करके बोले-हे देवानुप्रिय ! हम बलिचंचा राजधानी के निवासी बहुत-से असुरकुमार देव और देवीवृन्द आप देवानुप्रिय को वन्दन-नमस्कार करते हैं यावत् आपकी पर्युपासना करते हैं । हमारी बलिचंचा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से विहीन है । और हे देवानुप्रिय ! हम सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित रहने वाले हैं । और हमारे सब कार्य इन्द्राधीन होते हैं । इसलिए हे देवानुप्रिय ! आप बलिचंचा राजधानी (के अधिपतिपद) का आदर करें । उसके स्वामित्व को स्वीकार करें, उसका मन में भलीभाँति स्मरण करें, उसके लिए निश्चय करें, उसका निदान करें, बलिचंचा में उत्पन्न होकर स्थिति करने का संकल्प करें । तभी आप काल के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके बलिचंचा राजधानी में उत्पन्न होंगे । फिर आप हमारे इन्द्र बन जाएँगे और हमारे साथ दिव्य कामभोगों को भोगते हुए विहरण करेंगे ।
जब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने उस तामली बालतपस्वी को इस प्रकार से कहा तो उसने उनकी बात का आदर नहीं किया, स्वीकार भी नहीं किया, किन्तु मौन रहा । तदनन्तर बलिचंचा-राजधानी-निवासी उन बहुत