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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
के साथ उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप आहार का आस्वादन करता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ, दूसरों को परोसता हुआ भोजन कराता हुआ और स्वयं भोजन करता हुआ तामली गृहपति विहरण कर रहा था ।
भोजन करने के बाद उसने पानी से हाथ धोये और चुल्लू में पानी लेकर शीघ्र आचमन किया, मुख साफ करके स्वच्छ हुआ । फिर उन सब मित्र - ज्ञाति- स्वजन - परिजनादि का विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला, अलंकार आदि से सत्कारसम्मान किया । फिर उन्हीं के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया । उन्हीं मित्र- स्वजन आदि तथा अपने ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर और मुण्डित हो कर 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार की और अभिग्रह ग्रहण किया- "आज से मेरा कल्प यह होगा कि मैं आजीवन निरन्तर छट्ट-छट्ट तप करूँगा, यावत् पूर्वकथितानुसार भिक्षाविधि से केवल भात लाकर उन्हें २१ बार पानी से धोकर उनका आहार करूंगा ।" इस प्रकार अभिग्रह धारण करके वह तामली तापस यावज्जीवन निरन्तर बेले- बेले तप करके दोनों भुजाएँ ऊँची करके आतापनाभूमि में सूर्य के सम्मुख आतापना लेता हुआ विचरण करने लगा । बेले के पार के दिन आतापना भूमि से नीचे उतर कर स्वयं काष्ठपात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृह- समुदाय से विधिपूर्वक भिक्षा के लिए घूमता था । भिक्षा में वह केवल भात लाता और उन्हें २१ बार पानी से धोता था, तत्पश्चात् आहार करता था । भगवन् ! तामली द्वारा ग्रहण की हुई प्रव्रज्या 'प्राणामा' कहलाती है, इसका क्या कारण है ? हे गौतम! प्राणामा प्रव्रज्या में प्रव्रजित होने पर वह व्यक्ति जिसे जहाँ देखता है, उसे वहीं प्रणाम करता है | ) ( अर्थात् - ) इन्द्र को, स्कन्द को, रुद्र को, शिव को वैश्रमण को, आर्या को, रौद्ररूपा चण्डिका को, राजा को, यावत् सार्थवाह को, अथवा कौआ, कुत्ता और श्वपाक (आदि सबको प्रणाम करता है ।) इनमें से उच्च व्यक्ति को देखता है, उच्च-रीति से प्रणाम करता है, नीच को देखकर नीची रीति से प्रणाम करता है । इस कारण हे गौतम ! इस प्रव्रज्या का नाम 'प्राणामा' प्रव्रज्या है |
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तत्पश्चात् वह मौर्यपुत्र तामली तापस उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रगृहीत बाल तप द्वारा सूख गया, रूक्ष हो गया, यावत् उसके समस्त नाड़ियों का जाल वाहर दिखाई देने लगा । तदनन्तर किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने के बाद अपररात्रिकाल के समय अनित्य जागरिका करते हुए उस बालतपस्वी तामली को इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'मैं इस उदार विपुल यावत् उदग्र, उदात्त, उत्तम और महाप्रभावशाली तपःकर्म करने से शुष्क और रूक्ष हो गया हूँ, यावत् मेरा शरीर इतना कृश हो गया है कि नाड़ियों का जाल बाहर दिखाई देने लग गया है । इसलिए जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुपकार- पराक्रम है, तब तक मेरे लिए (यही) श्रेयस्कर है कि कल प्रातःकाल यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मैं ताम्रलिप्ती नगरी में जाऊँ । वहाँ जो दृष्टभाषित व्यक्ति हैं, जो पापण्ड (व्रतों में) स्थित हैं, या जो गृहस्थ हैं, जो पूर्वपरिचित हैं, या जो पश्चात्परिचित हैं, तथा जो समकालीन प्रव्रज्या - पर्याय से युक्त पुरुष हैं, उनसे पूछकर, ताम्रलिप्ती नगरी के बीचोंबीच से निकलकर पादुका, कुण्डी आदि उपकरणों तथा काष्ठ - पात्र को एकान्त में रखकर, ताम्रलिप्ती नगरी के ईशान कोण में निवर्तनिक मंडल का आलेखन करके,