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________________ भगवती-३/-/१/१६० ८७ में ताम्रलिप्ती नगरी थी । उस नगरी में तामली नाम का मौर्यपुत्र गृहपति रहता था । वह धनाढ्य था, दीप्तिमान था, और बहुत-से मनुष्यों द्वारा अपराभवनीय था । तत्पश्चात् किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर पिछली गत्रि-काल के समय कुटुम्ब जागरिका जागते हुए उस मौर्यपुत्र तामली गाथापति को इस प्रकार का यह अध्यवसाय यावत् मन में संकल्प उत्पन्न हुआ कि “मेरे द्वारा पूर्वकृत, पुरातन सम्यक् आचरित, सुपराक्रमयुक्त, शुभ और कल्याणरूप कृतकर्मों का कल्याणफलरूप प्रभाव अभी तक तो विद्यमान है; जिसके कारण मैं हिरण्य से बढ़ रहा हूँ, सुवर्ण से, धन से, धान्य से, पुत्रों से, पशुओं से बढ़ रहा है, तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त वगैर शैलज मणिरूप पत्थर, प्रवाल (मूंगा) रक्तरत्न तथा माणिक्यरूप सारभूत धन से अधिकाधिक बढ़ रहा हूँ तो क्या मैं पूर्वकृत, पुरातन, समाचरित यावत् पूर्वकृतकर्मों का एकान्तरूप से क्षय हो रहा है, इसे अपने सामने देखता रहूँ-इस क्षय की उपेक्षा करता रहूँ ? अतः जब तक मैं चांदी-सोने यावत् माणिक्य आदि सारभूत पदार्थों के रूप में सुखसामग्री द्वारा दिनानुदिन अतीत-अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ और जब तक मेरे मित्र, ज्ञातिजन, स्वगोत्रीय कुटुम्बीजन, मातृपक्षीय या श्वसुरपक्षीय सम्बन्धी एवं परिजन, मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी रूप में मानते हैं, मेरा सत्कार-सम्मान करते हैं, मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, और चैत्य रूप मानकर विनयपूर्वक मेरी पर्युपासना करते हैं; तब तक (मुझे अपना कल्याण कर लेना चाहिए ।) यही मेरे लिए श्रेयस्कर है । - अतः रात्रि के व्यतीत होने पर प्रभात होते ही यावत जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर मैं स्वयं अपने हाथ से काष्ठपात्र बनाऊँ और पर्याप्त अशन, पान, खादिम और स्वादिमरूप चारों प्रकार का आहार तैयार करा कर, अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी तथा दास-दासी आदि परिजनों को आमंत्रित करके उन्हें सम्मानपूर्वक अशनादि चारों प्रकार के आहार का भोजन कराऊँ; फिर वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला और आभूषण आदि द्वारा उनका सत्कारसम्मान करके उन्हीं मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी और परिजनों के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके, उन मित्र-ज्ञातिजन-स्वजन-परिजनादि तथा अपने ज्येष्ठपुत्र से पूछकर, मैं स्वयमेव काठपात्र लेकर एवं मुण्डित होकर 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार करू और प्रव्रजित होते ही. मैं इस प्रकार का अभिग्रह धारण करू कि मैं जीवनभर निरन्तर छट्ठ-छ? तपश्चरण करूंगा और सूर्य के सम्मुख दोनों भुजाएं ऊँची करके आतापना भूमि में आतापना लेता हुआ रहँगा और छ8 के पारणे के दिन आतापनाभूमि से नीचे उतर कर स्वयं काष्ठपात्र हाथ में लेकर ताम्रलिप्ती नगरी के ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करके भिक्षाविधि द्वारा शुद्ध ओदन लाऊंगा और उसे २१ बार धोकर खाऊँगा।" इस प्रकार तामली गृहपति ने शुभ विचार किया । इस प्रकार का विचार करके रात्रि व्यतीत होते ही प्रभात होने पर यावत् तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्वयमेव लकड़ी का पात्र बनाया । फिर अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप आहार तैयार करवाया । उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध और उत्तम वस्त्रों को ठीक-से पहने, और अल्पभार तथा बहुमूल्य आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया । भोजन के समय वह भोजन मण्डप में आकर शुभासन पर सुखपूर्वक बैठा । इसके बाद मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन सम्बन्धी एवं परिजन आदि
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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