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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
लेना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों की विकुर्वणाशक्ति वाले हैं । इसी प्रकार ब्रह्मलोक के विषय में भी जानना चाहिए । विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीपों की वैक्रियशक्ति वाले हैं । इसी प्रकार लान्तक नामक छठे देवलोक के इन्द्रादि की ऋद्धि आदि के विषय में समझना चाहिए किन्तु इतना विशेष है कि वे सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने की विकुर्वणाशक्ति रखते हैं । महाशुक्र के विषय में इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीपों को भरने की वैक्रियशक्ति रखते हैं । सहस्त्रार के विषय में भी यही बात है । विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने का वैक्रिय - सामर्थ्य रखते हैं । इसी प्रकार प्राणत के विषय में भी जानना चाहिए, इतनी विशेषता है कि वे सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीपों की वैक्रियशक्ति वाले हैं । इसी तरह अच्युत के विषय में भी जानना । विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक क्षेत्र को भरने का वैक्रिय - सामर्थ्य रखते हैं । शेष सब वर्णन पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
इसके पश्चात् किसी एक दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी 'मोका' नगरी के 'नन्दन' नामक उद्यान से बाहर निकलकर (अन्य ) जनपद में विचरण करने लगे ।
[१६०] उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था । यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी । उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज, शूलपाणि वृषभ - वाहन लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रजरहित निर्मल वस्त्रधारक, सिर पर माला से सुशोभित मुकुटधारी, नवीनस्वर्ण निर्मित सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से कपोल को जगमगाता हुआ यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करता हुआ ईशानेन्द्र, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान में यावत् दिव्य देवऋद्धि का अनुभव करता हुआ और यावत् जिस दिशा से आया था उसी दिशा में वापस चला गया । 'हे भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार कहा - 'अहो, भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी महाऋद्धि वाला है ! भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि कहाँ चली गई ? कहाँ प्रविष्ट हो गई ?' गौतम ! वह दिव्य देवऋद्धि ( उसके ) शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई है । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई कूटाकार शाला हो, जो दोनों तरफ से लीपी हुई हो, गुप्त हो, गुप्त-द्वारवाली हो, निर्वात हो, वायुप्रवेश से रहित गम्भीर हो, यावत् ऐसी कूटाकारशाला का दृष्टान्त कहना चाहिए ।
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव किस कारण से उपलब्ध किया, किस कारण से प्राप्त किया और किस हेतु से अभिमुख किया ? यह ईशानेन्द्र पूर्वभव में कौन था ? इसका क्या नाम था, क्या गोत्र था ? यह किस ग्राम, नगर अथवा यावत् किस सन्निवेश में रहता था ? इसने क्या सुनकर, क्या देकर, क्या खाकर, क्या करके, क्या सम्यक् आचरण करके, अथवा किस तथारूप श्रमण या माहन के पास से एक भी आर्य एवं धार्मिक सुवचन सुनकर तथा हृदय में धारण करके जिस से देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र ने वह दिव्य देव ऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है और अभिमुख की है ? हे गौतम! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष