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भगवती-२/-/१/११२
तत्पश्चात् ‘स्कन्दक !' इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पखिाजक से इस प्रकार कहा-हे स्कन्दक! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे इस प्रकार आक्षेपपूर्वक पूछा था कि मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ! आदि । यावत्-उसेक प्रश्नों से व्याकुल होकर तुम मेरे पास शीघ्र आए हो । हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है । 'हाँ, भगवन् ! यह बात सत्य है ।'
(भगवान् ने फरमाया-) हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प, समुत्पन्न हआ था कि 'लोक सान्त है, या अनन्त ?' उस का यह अर्थ (उत्तर) है-हे स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार का लोक बतलाया है, वह इस प्रकार है-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । उन चारों में से द्रव्य से लोक एक है,
और अन्तवाला है, क्षेत्र से लोक असंख्य कोड़ाकोडी योजन तक लम्ब-चौड़ा है असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन का परिधिवाला है, तथा वह अन्तसहित है । काल से ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें लोक नहीं था, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसम लोक नहीं है, ऐसा कोई काल नहीं होगा. जिसमें लोक न होगा । लोक सदा था, सदा है, और सदा रहेगा । लोक घूव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । उसका अन्त नहीं है । भाव से लोक अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप, रसपर्यायरूप और स्पर्श-पर्यायरूप है । इसी प्रकार अनन्त संस्थानपर्यायरूप, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप एवं अनन्त अगुरुलघुपर्यायरूप है । उसका अन्त नहीं है । इस प्रकार हे स्कन्दक ! द्रव्य-लोक अन्तसहित है, क्षेत्र-लोक अन्तसहित है, काल-लोक अन्तरहित है और भावलोक भी अन्तरहित है । अतएव लोक अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है ।
और हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यह विकल्प उठा था, कि यावत्-'जीव सान्त है या अन्तरहित है ?' उसका भी अर्थ इस प्रकार है-'यावत् द्रव्य से एक जीव अन्तसहित है । क्षेत्र से-जीव असंख्य प्रदेशवाला है और असंख्य प्रदेशों का अवगाहन किये हुए है, अतः वह अन्तसहित है । काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें जीव न था, यावत्-जीव नित्य है, अन्तरहित है । भाव से-जीव अनन्त-ज्ञानपर्यायरूप है, अनन्तदर्शनपर्यायरूप है, अनन्तचारित्रपर्यायरूप है, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप है, अनन्त-अगुरुलघुपर्यायरूप है और उसका अन्त नहीं है । इस प्रकारद्रव्यजीव और क्षेत्रजीव अन्तसहित है, तथा काल-जीव और भावजीव अन्तरहित है । अतः हे स्कन्दक ! जीव अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है ।
हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यावत् जो यह विकल्प उठा था कि सिद्धि सान्त है या अन्तरहित है ? उसका भी यह अर्थ है-है स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार की सिद्धि बताई है । वह इस प्रकार है-द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, कालसिद्धि और भावसिद्धि । द्रव्य से सिद्धि एक है, अतः अन्तसहित है । क्षेत्र से सिद्धि ४५ लाख योजन की लम्बीचौड़ी है, तथा एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ विशेषाधिक है, अतः अन्तसहित है । काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें सिद्धि नहीं थी, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें सिद्धि नहीं है तथा ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें सिद्धि नहीं रहेगी । अतः वह नित्य है, अन्तरहित है । भाव से सिद्धि-जैसे भाव लोक के सम्बन्ध में कहा था, उसी प्रकार है । इस प्रकार द्रव्यसिद्धि और क्षेत्रसिद्धि अन्तसहित है तथा कालसिद्धि और भावसिद्धि