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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक पख्रिाजक का शिष्य कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक नामक पख्रिाजक रहता था । यावत्-उस स्कन्दक पख्रिाजक ने जहाँ मैं हूँ, वहाँ मेरे पास आने के लिए संकल्प कर लिया है । वह अपने स्थान से प्रस्थान करके मेरे पास आ रहा है । वह बहुत-सा मार्ग पार करके अत्यन्त निकट पहुँच गया है । अभी वह मार्ग में चल रहा है । वह बीच के मार्ग पर है । हे गौतम ! तू आज ही उसे देखेगा ।' फिर 'हे भगवन् !' यों कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! क्या वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पख्रिाजक आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर आगार (घर) छोड़कर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ?' 'हाँ, गौतम ! वह समर्थ है । जब श्रमण भगवान् महावीरस्वामी गौतमस्वामी से यह बात कह ही रहे थे, कि इतने में वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पख्रिाजक उस स्थान में शीघ्र आ पहँचे ।
तब भगवान् गौतम स्कन्दक परिव्राजक को देखकर शीघ्र ही अपने आसन से उठे, उसके सामने गए । स्कन्दक पब्रिाजक के पास आकर उससे कहा-हे स्कन्दक ! तुम्हारा स्वागत है, तुम्हारा आगमन अनुरूप है । हे स्कन्दक क्या श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थने तुमसे आक्षेप पूर्वक पूछा था कि हे मागध ! लोक सांत है इत्यादि ? ईसके उत्तर के लिए तुम यहां आये हो क्या यह सत्य है ?
फिर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पब्रिाजक ने भगवान् गौतम से इस प्रकार पूछा“गौतम ! कौन ऐसा ज्ञानी और तपस्वी पुरुष है, जिसने मेरे मन की गुप्त बात तुमसे शीघ्र कह दी; जिससे तुम मेरे मन की गुप्त बात को जान गए ?" तब भगवान् गौतम ने कहा'हे स्कन्दक ! मेरे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक, श्रमण भगवान् महावीर, उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, अर्हन्त हैं, जिन हैं, केवली हैं, भूत, भविष्य और वर्तमान काल के ज्ञाता हैं, सर्वज्ञसर्वदर्शी हैं; उन्होंने तुम्हारे मन में रही हुई गुप्त बात मुझे शीघ्र कह दी, जिससे हे स्कन्दक ! मैं तुम्हारी उस गुप्त बात को जानता हूँ ।' तत्पश्चात् कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पब्रिाजक ने भगवान् गौतम से कहा-“हे गौतम ! (चलो) हम तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास चलें, उन्हें वन्दना-नमस्कार करें, यावत्-उनकी पर्युपासना करें ।" 'हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो । विलम्ब न करो ।" तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पब्रिाजक के साथ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ जाने का संकल्प किया । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर व्यावृत्तभोजी थे । इसलिए व्यावृत्तभोजी श्रमणभगवान्महावीर का शरीर उदार, श्रृंगाररूप, अतिशयशोभासम्पन्न, कल्याणरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, बिना अलंकार के ही सुशोभित, उत्तम लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त तथा शारीरिक शोभा से अत्यन्त शोभायमान था । अतः व्यावृत्तभोजी श्रमण भगवान् महावीर के उदार यावत् शोभा से अतीव शोभायमान शरीर को देखकर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पख्रिाजक को अत्यन्त हर्ष हुआ, सन्तोष हुआ, एवं उसका चित्त आनन्दित हुआ | वह आनन्दित, मन में प्रीतियुक्त परम सौमनस्यप्राप्त तथा हर्ष से प्रफुल्लहृदय होता हुआ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके निकट आकर प्रदक्षिणा की, यावत् पर्युपासना करने लगा ।