________________
२८
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सम्बन्ध में निरूपण किया गया है, उसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए ।
पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में कथन भी नैरयिको के समान समझना चाहिए; केवल क्रियाओं में भिन्नता है ।
भगवन् ! क्या सभी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव समानक्रिया वाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दो प्रकार के हैं, असंयत और संयतासंयत । उनमें जो संयतासंयत हैं, उन्हें तीन क्रियाएँ लगती हैं । आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । उनमें जो असंयत हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानी क्रियासहित चार क्रियाएँ लगती हैं । जो मिथ्यादृष्टि हैं तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उन्हें पांचों क्रियाएँ लगती हैं ।
मनुष्यों का आहारादिसम्बन्धित निरूपण नैरयिकों के समान समझना चाहिए । उनमें अन्तर इतना ही है कि जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं, और वे कभी-कभी आहार करते हैं, इसके विपरीत जो अल्पशरीर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं; और बार-बार करते हैं । वेदनापर्यन्त सब वर्णन नारकों के समान समझना।
"भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ?" “गौतमः! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! मनुष्य तीन प्रकार के हैं; सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के हैं, संयत, संयतासंयत और असंयत । उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के हैं, सरागसंयत और वीतरागसंयत । उनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे क्रियारहित हैं, तथा जो इनमें सरागसंयत हैं, वे भी दो प्रकार के हैं, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, उन्हें एक मायाप्रत्यया क्रिया लगती है । उनमें जो प्रमत्तसंयत हैं, उन्हें दो क्रियाएँ लगती हैं, आरम्भिकी
और मायाप्रत्यया । तथा उनमें जो संयतासंयत हैं, उन्हें आदि की तीन क्रियाएँ लगती हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । असंयतो को चार क्रियाएँ लगती हैं,-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानी क्रिया । मिथ्यादृष्टियों को पाँचों क्रियाएँ लगती हैं-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों को भी ये पांचों क्रियाएँ लगती हैं ।
वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के आहारादि के सम्बन्ध में सब वर्णन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए । विशेषता यह कि इनकी वेदना में भिन्नता है । ज्योतिष्क और वैमानिकों में जो मायी-मिथ्यादृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे अल्पवेदना वाले हैं, और जो अमायी सम्यग्दृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे महावेदनावाले होते हैं, ऐसा कहना चाहिए ।
भगवन् ! क्या लेश्यावाले समस्त नैरयिक समान आहारवाले होते हैं ? हे गौतम ! औधिक, सलेश्य, एवं शुक्ललेश्या वाले इन तीनों का एक गम-पाठ कहना चाहिए । कृष्णलेश्या और नीललेश्यावालों का एक समान पाठ कहना चाहिए, किन्तु उनकी वेदना में इस प्रकार भेद है-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपत्रक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहने चाहिए । तथा कृष्णलेश्या और नीललेश्या (के सन्दर्भ) में मनुष्यों के सरागसंयत, वीतरागसंयत, प्रमत्तसंयत और