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भगवती-१/-/२/२७
अप्रमत्तसंयत (भेद) नहीं कहना चाहिए । तथा कापोतलेश्या में भी यही पाठ कहना चाहिए । भेद यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों को औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए । तेजोलेश्या ओर पद्मलेश्या वालों को भी औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए । विशेषता यह है कि इन मनुष्यों में सराग और वीतराग का भेद नहीं कहना चाहिए; क्योंकि तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वाले मनुष्य सराग ही होते हैं ।
[२८] दुःख (कर्म) और आयुष्य उदीर्ण हो तो वेदते हैं | आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य, इन सबकी समानता के सम्बन्ध में पहले कहे अनुसार ही समझना।
[२९] 'भगवान् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! लेश्याएँ छह कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल । यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद का द्वितीय उद्देशक ऋद्धि की वक्तव्यता तक कहना चाहिए ।
[३०] भगवन् ! अतीतकाल में आदिष्ट-नारक आदि विशेषण-विशिष्ट जीव का संसारसंस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! संसार-संस्थान-काल चार प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार है-नैरयिकसंसार-संस्थानकाल, तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल, मनुष्यसंसार-संस्थानकाल और देवसंसारसंस्थानकाल ।
भगवन् ! नैरयिकसंसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल । भगवन् ! तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार-अशून्यकाल और मिश्रकाल ।
मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल का कथन नारकों के समान समझना ।
भगवन ! नारकों के संसारसंस्थानकाल के जो तीन भेद हैं-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल, इनमें से कौन किससे कम, बहुत, तुल्य, विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम अशून्यकाल है, उससे मिश्रकाल अनन्तगुणा है और उसकी अपेक्षा भी शून्यकाल अनन्तगुणा है । तिर्यंचसंसारसंस्थानकाल के दो भेदों में से सबसे कम अशून्यकाल है और उसकी अपेक्षा मिश्रकाल अनन्तगुणा है । मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल का अल्पबहुत्व नारकों के संसारसंस्थानकाल की न्यूनाधिकता के समान ही समझना चाहिए ।
भगवन् ! नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों के संसारसंस्थानकालों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ा मनुष्यसंसारसंस्थानकाल है, उससे नैरयिक संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा है, उससे देव संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा है और उससे तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल अनन्तगुणा है ।
[३१] हे भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? गौतम ! कोई जीव अन्तक्रिया करता है, कोई जीव नहीं करता । इस सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्रका अन्तक्रियापद जानलेना ।
[३२] भगवन् ! असंयतभव्यद्रव्यदेव, अखण्डित संयमवाला, खण्डितसंयमवाला, अखण्डितसंयमासंयम वाला, खण्डितसंयमासंयमवाला, असंज्ञी, तापस, कान्दर्पिक, चरकपख्रिाजक, किल्विषिक, तिर्यञ्च, आजीविक, आभियोगिक, दर्शन भ्रष्ट वेषधारी, ये देवलोक में उत्पन्न हों तो, किसका कहाँ उपपात होता है ? असंयतभव्यद्रव्यदेवों का उत्पाद जघन्यतः