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भगवती-७/-/१०/३७
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बैठने, सोने या यावत् करवट बदलने आदि क्रियाएँ करने में समर्थ है ।
भगवन् ! जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त करनेवाले पापकर्म, क्या इस रूपीकाय और अजीवकाय को लगते हैं ? क्या इस रूपीकाय और अजीवकायरूप पुद्गलास्तिकाय में पापकर्म लगते हैं ? कालोदायि ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । (भगवन् !) क्या इस अरूपी जीवास्तिकाय में जीवों को पापफलविपाक से युक्त पापकर्म लगते हैं ? हाँ ! लगते हैं ।
(समाधान पाकर) कालोदायी बोधि को प्राप्त हुआ । फिर उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके उसने कहा-'भगवन् ! मैं आपसे धर्म-श्रवण करना चाहता हूँ।' भगवान् ने उसे धर्म-श्रवण कराया । फिर जैसे स्कन्दक ने भगवान से प्रव्रज्या अंगीकार की थी वैसे ही कालोदायी भगवान् के पास प्रव्रजित हुआ । उसी प्रकार उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया...यावत् कालोदायी अनगार विचरण करने लगे ।
[३७८] किसी समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे । उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । गुणशीलक नामक चैत्य था । किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा । यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर लौट गई।
तदनन्तर अन्य किसी समय कालोदायी अनगार, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ उनके पास आये और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त पाप-कर्म लगते हैं ? हा, लगते है । भगवन् ! जीवों को पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म कैसे लगते हैं ? कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष सुन्दर स्थाली में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन का सेवन करता है । वह भोजन उसे आपात में अच्छा लगता है, किन्तु उसके पश्चात् वह भोजन परिणमन होता-होता खराब रूप में, दुर्गन्धरूप में यावत् छठे शतक के तृतीय उद्देशक में कहे अनुसार यावत् बार-बार अशुभ परिणाम प्राप्त करता है । हे कालोदायी ! इसी प्रकार जीवों को प्राणातिपात से लेकर यावत् मित्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थान का सेवन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में तो अच्छा लगता है, किन्तु बाद में जब उनके द्वारा बांधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब वे अशुभरूप में परिणत होतेहोते दुरूपपने में, दुर्गन्धरूप में यावत् बार-बार अशुभ परिणाम पाते हैं । हे कालोदायी ! इस प्रकार से जीवों के पापकर्म अशुभफलविपाक से युक्त होते हैं ।
भगवन् ! क्या जीवों के कल्याण (शुभ) कर्म कल्याणफलविपाक सहित होते हैं ? हाँ, कालोदायी । होते हैं । भगवन् ! जीवों के कल्याणकर्म यावत् (कल्याणफलविपाक से संयुक्त) कैसे होते हैं ? कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ स्थाली में पकाने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त औषधमिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में अच्छा न लगे, परन्तु बाद में परिणत होता-होता जब वह सुरूपत्वरूप में, सुवर्णरूप में यावत् सुख रूप में बार-बार परिणत होता है, तब वह दुःखरूप में परिणत नहीं होता, इसी प्रकार हे कालोदायी ! जीवों के लिए प्राणातिपातविरमण यावत परिग्रह-विरमण, क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगता,