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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
किन्तु उसके पश्चात् उसका परिणमन होते-होते सुरूपत्वरूप में, सुवर्णरूप में उसका परिणाम यावत् सुखरूप होता है, दुःखरूप नहीं होता । इसी प्रकार हे कालोदायी ! जीवों के कल्याण कर्म यावत् (कल्याणफलविपाक संयुक्त) होते हैं ।
[३७९] भगवन् ! (मान लीजिए) समान उम्र के यावत् समान ही भाण्ड, पात्र और उपकरण वाले दो पुरुष एक-दूसरे के साथ अग्निकाय का समारम्भ करें; उनमें से एक पुरुष अग्निकाय को जलाए और एक पुरुष अग्निकाय को बुझाए, तो हे भगवन् ! उन दोनों पुरुषों में से कौन-सा पुरुष महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महा-आस्त्रववाला और महावेदनावाला है और कौन-सा पुरुष अल्पकर्म वाला, अल्पक्रिया वाला, अल्पआस्त्रव वाला और अल्पवेदना वाला होता है ? हे कालोदायी ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अनिकाय को जलाता है वह पुरुष महाकर्मवाला यावत् महावेदना वाला होता है और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्मवाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है ।
भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते है ? कालोदायी ! उन दोनों पुरुपों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पृथ्वीकाय का बहुत समारम्भ करता है, अप्काय का बहुत समारम्भ करता है, तेजस्काय का अल्प समारम्भ करता है, वायुकाय का बहुत समारम्भ करता, वनस्पतिकाय का बहुत समारम्भ करता है और त्रसकाय का बहुत समारम्भ करता है । जो बुझाता है, वह पृथ्वीकाय का अल्प समारम्भ करता है, अप्काय का अल्प समारम्भ करता है, वायुकाय का अल्प समारम्भ करता है, वनस्पतिकाय का अल्प समारम्भ करता है एवं त्रसकाय का भी अल्प समारम्भ करता है, किन्तु अग्निकाय का बहुत समारम्भ करता है । इसलिए हे कालोदायी ! जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पुरुष महाकर्म वाला आदि है और जो बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला आदि है ।
[३८०] भगवन् ! क्या अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते हैं, वे वस्तुओं को उद्योतित करते हैं, तपाते हैं और प्रकाश करते हैं ? हाँ कालोदायी ! अचित्त पुद्गल भी यावत् प्रकाश करते हैं । भगवन् ! अचित्त होते हुए भी कौन-से पुद्गल अवभासित होते हैं, यावत् प्रकाश करते हैं ? कालोदायी ! क्रुद्ध अनगार की निकली हुई तेजोलेश्या दूर जाकर उस देश में गिरती है, जाने योग्य देश में जाकर उस देश में गिरती है । जहाँ वह गिरती है, वहाँ अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते हैं यावत् प्रकाश करते हैं । इसके पश्चात् वह कालोदायी अनगार श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं | बहुत-से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम इत्यादि तप द्वारा यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे; यावत् कालास्यवेषीपुत्र की तरह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए । शतक-७ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(शतक-८) [३८१] १. पुद्गल, २. आशीविष, ३. वृक्ष, ४. क्रिया, ५. आजीव, ६. प्रासुक, ७. अदत्त, ८. प्रत्यनीक, ९. बन्ध १०. आराधना, आठवें शतक में ये दस उद्देशक हैं ।
| शतक-८ उद्देशक-१ | [३८२] राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार