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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर यावत् गुणशील चैत्य में पधारे, वहाँ उनका समवसरण लगा । यावत् परिषद् (धर्मोपदेश सुनकर) वापिस चली गई । उस काल
और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थ उद्देशक में कहे अनुसार भिक्षाचारी के लिए पर्यटन करते हुए यथापर्याप्त आहार-पानी ग्रहण करके राजगृह नगर से यावत्, त्वरारहित, चपलतारहित सम्भ्रान्ततारहित, यावत् ईयर्यासमिति का शोधन करते-करते अन्यतीर्थिकों के पास से होकर निकले । तत्पश्चात् उन अन्यतीर्थिकों ने भगवान् गौतम को थोड़ी दूर से जाते हुए देखा । देखकर उन्होंने एक-दूसरे को बुलाया । बुलाकर एक-दूसरे से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि (पंचास्तिकाय सम्बन्धी) यह बात हमारे लिए अज्ञात है । यह गौतम हमसे थोड़ी ही दूर पर जा रहे हैं । इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमारे लिए गौतम से यह अर्थ पूछना श्रेयस्कर है, ऐसा विचार करके उन्होंने परस्पर इस सम्बन्ध में परामर्श किया । जहाँ भगवान् गौतम थे, वहाँ उनके पास आए । उन्होंने भगवान् गौतम से इस प्रकार पूछा
___ हे गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पंच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय । यावत् ‘एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपीकाय और अजीवकाय कहते हैं; यहाँ तक अपनी सारी चर्चा उन्होंने गौतम से कही । हे भदन्त गौतम ! यह बात ऐसे कैसे है ? इस पर भगवान् गौतम ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा-'हे देवानुप्रियो ! हम अस्तिभाव को नास्ति, ऐसा नहीं कहते, इसी प्रकार 'नास्तिभाव' को अस्ति ऐसा नहीं कहते । हे देवानुप्रियो ! हम सभी अस्तिभावों को अस्ति, ऐसा कहते हैं और समस्त नास्तिभावों को नास्ति, ऐसा कहते हैं । अतः हे देवानुप्रियो ! आप स्वयं अपने ज्ञान से इस बात पर चिन्तन करिये ।' –जैसा भगवान् बतलाते हैं, वैसा ही है ।' इस प्रकार कह कर श्री गौतमस्वामी गुणशीलक चैत्य में जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आए और द्वितीय शतक के निर्ग्रन्थ उद्देशक में बताये अनुसार यावत् आहार-पानी भगवान् को दिखलाया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके उनसे न बहुत दूर और न बहुत निकट रह कर यावत् उपासना करने लगे।
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर महाकथा-प्रतिपन्न थे । उसी समय कालोदायी उस स्थल में आ पहुँचा । श्रमण भगवान् महावीर ने कालोदायी से पूछा'हे कालोदायी ! क्या वास्तव में, किसी समय एक जगह सभी साथ आए हुए और एकत्र सुखपूर्वक बैठे हुए तुम सब में पंचास्तिकाय में सम्बन्ध में विचार हुआ था कि यावत् 'यह बात कैसे मानी जाए ?' क्या यह बात यथार्थ है ?' 'हाँ, यथार्थ है ।'
(भगवान्-) 'हे कालोदायी ! पंचास्तिकायसम्बन्धी यह बात सत्य है । मैं धर्मास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय पर्यन्त पंच अस्तिकाय की प्ररूपणा करता हूँ। उनसे से चार अस्तिकायों को मैं अजीवकाय बतलाता हूँ । यावत् पूर्व कथितानुसार एक पुद्गलास्तिकाय को मैं रूपीकाय बतलाता हूँ | तब कालोदायी ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा-'भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, इन अरूपी अजीवकायों पर कोई बैठने, सोने, खड़े रहने, नीचे बैठने यावत् करवट बदलने, आदि क्रियाएँ करने में समर्थ है ?' हे कालोदायी ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । एक पुद्गलास्तिकाय ही रूपी अजीवकाय है, जिस पर कोई भी