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________________ भगवती-७/-/६/३६० १७९ मलिन अंगवाले, अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ से युक्त अशुभ दुःख के भागी, प्रायः धर्मसंज्ञा और सम्यक्त्व से परिभ्रष्ट होंगे । उनकी अवगाहना उत्कृष्ट एक रलिप्रमाण होगी । उनका आयुष्य सोलह वर्ष का और अधिक-से-अधिक बीस वर्ष का होगा । वे बहुत से पुत्रपौत्रादि परिवारवाले होंगे और उन पर उनका अत्यन्त स्नेह होगा । इनके ७२ कुटुम्ब बीजभूत तथा बीजमात्र होगे । ये गंगा और सिन्धु महानदियों के बिलों में और वैताढ्यपर्वत की गुफाओं में निवास करेंगे । भगवन् ! (उस दुःषमदुःषमकाल के) मनुष्य किस प्रकार का आहार करेंगे ? गौतम ! उस काल और उस समय में गंगा और सिन्धु महानदियाँ रथ के मार्गप्रमाण विस्तारवाली होंगी । रथ की धुरी के प्रवेश करने के छिद्र जितने भाग में आ सके उतना पानी बहेगा । वह पानी भी अनेक मत्स्य, कछुए आदि से भरा होगा और उसमें भी पानी बहुत नहीं होगा । वे बिलवासी मनुष्य सूर्योदय के समय एक मुहूर्त और सूर्यास्त के समय एक मुहूर्त बिलो से बाहर निकलेंगे । बिलों से बाहर निकल कर वे गंगा और सिन्धु नदियों में से मछलियों और कछुओं आदि को पकड़ कर जमीन में गाड़ेंगे । इस प्रकार गाड़े हुए मत्स्य-कच्छपादि ठंड और धूप से सुक जाएँगे । इस प्रकार शीत और आतप से पके हुए मत्स्य-कच्छपादि से इक्कीस हजार वर्ष तक जीविका चलाते हुए वे विहरण करेंगे । भगवन् ! वे शीलरहित, गुणरहित, मर्यादाहीन, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास से रहित, प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, क्षुद्राहारी एवं कुणिमाहारी मनुष्य मृत्यु के समय मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? गौतम ! वे मनुष्य मर कर प्रायः नरक एवं तिर्यञ्च-योनियों में उत्पन्न होंगे । भगवन् ! निःशील यावत् कुणिमाहारी सिंह, व्याघ्र, वृक, द्वीपिक, रीछ, तरक्ष और गेंडा आदि मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होंगे । भगवन् ! निःशील आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त ढंक, कंक, बिलक, मदुक, शिखी (आदि पक्षी मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे ?) गौतम ! प्रायः नरक एवं तिर्यच योनियों में उत्पन्न होंगे । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । | शतक-७ उद्देशक-७ [३६१] भगवन् ! उपयोगपूर्वक चलते-बैठते यावत् उपयोगपूर्वक करवट बदलते तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि ग्रहण करते और रखते हुए उस संवृत अनगार को क्या ऐपिथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? गौतम ! उस संवृतअनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी नहीं।। भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि यावत् उस संवृत अनगार को ऐपिथिकी क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती ? गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न हो गए हैं, उस को ही ऐपिथिकी क्रिया लगती है, क्योंकि वही यथासूत्र प्रवृत्ति करता है । इस कारण हे गौतम ! उसको यावत् साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती । [३६२] भगवन् ! काम रूपी हैं या अरूपी हैं ? आयुष्मन् श्रमण ! काम रूपी हैं, अरूपी नहीं हैं । भगवन् ! काम सचित्त हैं अथवा अचित्त हैं ? गौतम ! काम सचित्त भी
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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