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भगवती-७/-/१/३२९
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[३२९] भगवन् ! लोक का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! सुप्रतिष्ठिक के आकार का है । वह नीचे विस्तीर्ण है और यावत् ऊपर मृदंग के आकार का है । ऐसे इस शाश्वत लोक में उत्पन्नकेवलज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हन्त, जिन, केवली जीवों को भी जानते
और देखते हैं तथा अजीवों को भी जानते और देखते हैं । इसके पश्चात् वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं, यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं ।
[३३०] भगवन् ! श्रमण के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? गौतम ! उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती । भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किए हुए श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरणी होती है । जिसकी आत्मा अधिकरण का निमित्त होती है, उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है । हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है ।
[३३१] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही त्रस-प्राणियों के समारम्भ का प्रत्याख्यान कर लिया हो, किन्तु पृथ्वीकाय के समारम्भ का प्रत्याख्यान नहीं किया हो, उस श्रमणोपासक से पृथ्वी खोदते हुए किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए, तो भगवन् ! क्या उसके व्रत (त्रसजीववध-प्रत्याख्यान) का उल्लंघन होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं; क्योंकि वह त्रसजीव के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता ।
भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही वनस्पति के समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हो, पृथ्वी को खोदते हुए किसी वृक्ष का मूल छिन्न हो जाए, तो भगवन् ! क्या उसका व्रत भंग होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह श्रमणोपासक उस (वनस्पति) के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता ।
[३३२] भगवन् ! तथारूप श्रमण और माहन को प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खादिम और स्वादिम द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को क्या लाभ होता है ? गौतम ! वह श्रमणोपासक तथारूप श्रमण या माहन को समाधि उत्पन्न करता है । उन्हें समाधि प्राप्त करानेवाला श्रमणोपासक उसी समाधि को स्वयं भी प्राप्त करता है । भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को यावत् प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक क्या त्याग (या संचय) करता है ? गौतम ! वह श्रमणोपासक जीवित का त्याग करता है, दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, दुष्कर कार्य करता है दुर्लभ वस्तु का लाभ लेता है, बोधि प्राप्त करता है, सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ।
[३३३] भगवन् ! क्या कर्मरहित जीव की गति होती है ? हाँ, गौतम ! अकर्म जीव की गति होती है । भगवन् ! अकर्म जीव की गति कैसे होती है ? गौतम ! निःसंगता से, नीरागता से, गतिपरिणाम से, बन्धन का छेद हो जाने से, निरिन्धनता-(कर्मरूपी इन्धन से मुक्ति) होने से और पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है ।
भगवन् ! निःसंगता से, नीरागता से, गतिपरिणाम से यावत् पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति कैसे होती है ? गौतम ! जैसे, कोई पुरुष एक छिद्ररहित और निरुपहत सूखे तुम्बे पर क्रमशः परिकर्म करता-करता उस पर डाभ और कुश लपेटे । उन्हें लपेट कर उस पर आठ बार मिट्टी के लेप लगा , फिर उसे धूप में रख दे । बार-बार (धूप में देने से) अत्यन्त