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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सूखे हुए उस तुम्बे को अथाह, अतरणीय, पुरुष-प्रमाण से भी अधिक जल में डाल दे, तो हे गौतम ! वह तुम्बा मिट्टी के उन आठ लेपों से अधिक भारी हो जाने से क्या पानी के उपरितल को छोड़ कर नीचे पृथ्वीतल पर जा बैठता है ? हाँ, भगवन् ! वह तुम्बा नीचे पृथ्वीतल पर जा बैठता है । गौतम ! आठों ही मिट्टी के लेपों के नष्ट हो जाने से क्या वह तुम्बा पृथ्वीतल को छोड़ कर पानी के उपरितल पर आ जाता है ? हाँ, भगवन् ! आ जाता है । हे गौतम ! इसी तरह निःसंगता से, नीरागता से एवं गतिपरिणाम से कर्मरहित जीव की भी (उर्ध्व) गति होती है ।
भगवन् ! बन्धन का छेद हो जाने से अकर्मजीव की गति कैसे होती है ? गौतम ! जैसे कोई मटर की फल, मूंग की फली, उड़द की फली, शिम्बलि-- और एरण्ड के फल को धूप में रख कर सुखाए तो सूख जाने पर फटता है और उसमें का बीज उछल कर दूर जा गिरता है, हे गौतम ! इसी प्रकार कर्मरूप बन्धन का छेद हो जाने पर कर्मरहित जीव की गति होती है । भगवन् ! इन्धनरहित होने से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? गौतम ! जैसे इन्धन से छूटे हुए धुंए की गति रुकावट न हो तो स्वाभाविक रूप से ऊर्ध्व होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! कर्मरूप इन्धन से रहित होने से कर्मरहित जीव की गति होती है । भगवन् ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? गौतम ! जैसे-धनुष से छूटे हुए बाण की गति लक्ष्याभिमुखी होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है । इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि निःसंगता से, यावत् पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की (ऊर्ध्व) गति होती है ।
[३३४] भगवन् ! क्या दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है अथवा अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है ? गौतम ! दुःखी जीव ही दुःख से स्पृष्ट होता है, किन्तु अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट नहीं होता । भगवन् ! क्या दुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है या अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है ? गौतम ! दुःखी नैरयिक ही दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट नहीं होता । इसी तरह वैमानिक पर्यन्त दण्डकों में कहना चाहिए ।
इसी प्रकार के पांच दण्डक (आलापक) कहने चाहिए, यथा-(१) दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है, (२) दुःखी दुःख का परिग्रहण करता है, (३) दुःखी दुःख की उदीरणा करता है, (४) दुःखी दुःख का वेदन करता है और (५) दुःखी दुःख की निर्जरा करता है ।
[३३५] भगवन् ! उपयोगरहित गमन करते हुए, खड़े होते हुए, बैठते हुए या सोते हुए और इसी प्रकार बिना उपयोग के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन ग्रहण करते हुए या रखते हुए अनगार को ऐयापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? गौतम ! ऐसे अनगार को साम्परायिक क्रिया लगती है ।
भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो गए, उस को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती । किन्तु जिसी जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ, व्युच्छिन्न नहीं हुए, उसको साम्परायिकी क्रिय लगती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती । सूत्र के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले अनगार को ऐयापथिकी क्रिया लगती है और उत्सूत्र प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है । उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाला अनगार, सूत्रविरुद्ध