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भगवती-५/-/२/२२०
पश्चिम में भी बहती हैं, और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब वे सब हवाएँ पूर्व में भी बहती हैं । इसी प्रकार सब दिशाओं में भी उपर्युक्त कथन करना । इसी प्रकार समस्त विदिसाओं में भी उपर्युक्त आलापक कहना चाहिए ।
भगवन् ! क्या द्वीप में भी ईषत्पुरोवात आदि वायु होती हैं ? हाँ, गौतम ! होती हैं । भगवन् ! क्या समुद्र में भी ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ होती हैं ? हाँ, गौतम ! होती हैं ।
भगवन् ! जब द्वीप में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं ? और जब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या द्वीपीय ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हवाएँ बहती हैं, तब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ नहीं बहतीं, और जब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ बहती हैं, तब द्वीपीय ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ नहीं बहतीं ? गौतम ! ये सब वायु परस्पर व्यत्यासरूप से एवं पृथक्-पृथक् बहती हैं । साथ ही, वे वायु लवणसमुद्र की वेला का उल्लंघन नहीं करती । इस कारण यावत् वे वायु पूर्वोक्त रूप से बहती हैं ।
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भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं । हाँ, गौतम ! ( ये सब ) बहती हैं । भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु कब बहती हैं ? गौतम ! जब वायुकाय अपने स्वभावपूर्वक गति करता है, तब ईषत्पुरोवात आदि वायु यावत् बहती हैं । भगवान् ! क्या ईषत्पुरोवात आदि वायु ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवान् ईषत्पुरोवात आदि वायु (और भी) कभी चलती (बहती ) हैं ? हे गौतम ! जब वायुकाय उत्तरक्रियापूर्वक (वैक्रिय शरीर बना कर) गति करता है, तब ( भी ) ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती (चलती ) हैं ।
भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु (ही) हैं ?' हाँ, गौतम ! वे ( सब वायु ही ) हैं । भगवन् ! ईषत्पुरोवात, पथ्यवात आदि (और) कब ( किस समय में ) चलती हैं ? गौतम ! जब वायुकुमार देव और वायुकुमार देवियाँ, अपने लिए, दूसरों के लिए या दोनों के लिए वायुकाय की उदीरणा करते हैं, तब ईषत्पुरोवात आदि वायु यावत् चलती ( बहती )
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भगवन् ! क्या वायुकाय वायुकाय को ही श्वासरूप में ग्रहण करता है और निःश्वासरूप में छोड़ता है ? गौतम ! इस सम्बन्ध में स्कन्दक परिव्राजक के उद्देशक में कहे अनुसार चार आलापक जानना चाहिए - यावत् ( १ ) अनेक लाख बार मर कर, (२) स्पृष्ट हो कर, (३) मरता है और (४) शरीर - सहित निकलता है ।
[२२१] भगवन् ! अब यह बताएँ कि ओदन, उड़द और सुरा, इन तीनों द्रव्यों को किन जीवों का शरीर कहना चाहिए ? गौतम ! ओदन, कुल्माष और सुरा में जो घन द्रव्य हैं, वे पूर्वभाव - प्रज्ञापना की अपेक्षा से वनस्पतिजीव के शरीर हैं । उसके पश्चात् जब वे ( ओदनादि द्रव्य) शस्त्रातीत हो जाते हैं, शस्त्रपरिणत हो जाते हैं; आग से जलाये अग्नि से सेवित- अग्निसेवित और अग्निपरिणामित हो जाते हैं, तब वे द्रव्य अग्नि के शरीर कहलाते हैं । तथा सुरा में जो तरल पदार्थ है, वह पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से अप्कायिक जीवों का शरीर है, और जब वह तरल पदार्थ (पूर्वोक्त प्रकार से ) शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित हो जाता है, तब वह भाग, अग्रिकाय-शरीर कहा जा सकता है ।
भगवन् ! लोहा, तांबा, त्रपुष्, शीशा, उपल कोयला और लोहे का काट, ये सब द्रव्य किन (जीवों के) शरीर कहलाते हैं ? गौतम ! ये सब द्रव्य पूर्वप्रज्ञापना की अपेक्षा से