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________________ १२२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं, और उसके बाद शस्त्रातीत यावत् शस्त्रपरिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं । __ भगवन् ! ये हड्डी, अस्थिध्याम (अग्नि से पर्यायान्तर को प्राप्त हड्डी और उसका जला हुआ भाग), चमड़ा, चमड़े का जला हुआ स्वरूपान्तरप्राप्त भाग, रोम, अग्निज्वलित रोम, सींग, अग्नि प्रज्वलित विकृत सींग, खुर, अग्निप्रज्वलित खुर, नख और अग्निप्रज्वलित नख, ये सब किन (जीवों) के शरीर कहे जा सकते हैं ? गौतम ! हड्डी, चमड़ा, रोम, सींग, खुर, और नख ये सब त्रसजीवों के शरीर कहे जा सकते हैं, और जली हुई हड्डी, प्रज्वलित विकृत चमड़ा, जले हुए रोम, प्रज्वलित-रूपान्तरप्राप्त सींग, प्रज्वलित खुर औ प्रज्वलित नख; ये सब पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से तो त्रसजीवों के शरीर है किन्तु उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं । भगवन् ! अंगार, राख, भूसा और गोबर, इन सबको किन जीवों के शरीर कहे जाएँ ? गौतम ! अंगार, राख, भूसा और गोबर ये सब पूर्व-भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से एकेन्द्रियजीवों द्वारा अपने शरीर रूप से, प्रयोगों से अपने साथ परिणामित एकेन्द्रिय शरीर हैं, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर भी कहे जा सकते हैं, और तत्पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निकायपरिणामित हो जाने पर वे अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं । [२२२] भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कम्भ कितना कहा गया है ? गौतम ! (लवणसमुद्र के सम्बन्ध में सारा वर्णन) पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् लोकस्थिति लोकानुभाव तक कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | शतक-५ उद्देशक-३ [२२३] भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई (एक) जालग्रन्थि हो, जिसमें क्रम से गांठें दी हुई हों, एक के बाद दूसरी अन्तररहित गांठें लगाई हुई हों, परम्परा से गूंथी हुई हो, परस्पर गूंथी हुई हो, ऐसी वह जालग्रन्थि परस्पर विस्तार रूप से,परस्पर भाररूप से तथा परस्पर विस्तार और भाररूप से, परस्पर संघटित रूप से यावत् रहती है, वैसे ही बहुत-से जीवों के साथ क्रमशः हजारों-लाखों जन्मों से सम्बन्धित बहुत-से आयुष्य परस्पर क्रमशः गूंथे हुए हैं, यावत् परस्पर संलग्न रहते हैं । ऐसी स्थिति में उनमें से एक जीव भी एक समय में दो आयुष्यों को वेदता है । यथा एक ही जीव, इस भव का आयुष्य वेदता है और वही जीव, परभव का भी आयुष्य वेदता है । जिस समय इस भव के आयुष्य का वेदन करता है, उसी समय वह जीव परभव के आयुष्य का भी वेदन करता है; यावत् हे भगवन् ! यह किस तरह है ? __ गौतम ! उन अन्यतीर्थिकों ने जो यह कहा है कि...यावत् एक ही जीव, एक ही समय में इस भव का और पर-भव को दोनों का आयुष्य वेदता है, उनका यह सब कथन मिथ्या है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि जैसे कोई एक जाल ग्रन्थि हो और वह यावत्...परस्पर संघटित रहती है, इसी प्रकार क्रमपूर्वक बहुत-से सहस्त्रों जन्मों से सम्बन्धित, बहुत-से हजारों आयुष्य, एक-एक जीव के साथ श्रृंखला की कड़ी के समान परस्पर क्रमशः ग्रथित यावत् रहते हैं । (ऐसा होने से) एक जीव एक समय में एक
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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