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________________ १२० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद गौतम ! (यह इसी तरह होता है ।) और वहां...यावत् अवस्थित काल कहा है । भगवन् ! धातकीखण्ड द्वीप में सूर्य, ईशानकोण में उदय हो कर क्या अग्निकोण में अस्त होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । हे गौतम ! जम्बूद्वीप के समान सारी वक्तव्यता धातकीखण्ड के विषय में भी कहनी चाहिए । परन्तु विशेष यह है कि इस पाठ का उच्चारण करते समय सभी आलापक इस प्रकार कहने चाहिए भगवन् ! जब धातकीखण्ड के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है ? और जब उत्तरार्द्ध में दिन होता है, तब क्या धातकीखण्ड द्वीप के मन्दरपर्वतों से पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है ? हाँ, गौतम ! यह इसी तरह है । भगवन् ! जब धातकीखण्डद्वीप के मन्दरपर्वतों से पूर्व में दिन होता है, तब क्या पश्चिम में भी दिन होता है ? और जब पश्चिम में दिन होता है, तब क्या धातकीखण्डद्वीप के मन्दरपर्वतों से उत्तर-दक्षिण में रात्रि होती है ? हाँ, गौतम ! (इसी तरह है,) और इसी अभिलाप से जानना चाहिए, यावत्-भगवन् ! जब दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी होती है ? और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब क्या धातकीखण्ड द्वीप के मन्दरपर्वतों से पूर्व पश्चिम में भी अवसर्पिणी नहीं होती ? यावत् उत्सर्पिणी नहीं होती ? परन्तु आयुष्मान् श्रमणवर्य ! क्या वहाँ अवस्थितकाल होता है ? हाँ, गौतम ! (इसी तरह है,) यावत् अवस्थित काल होता है । जैसे लवणसमुद्र के विषय में वक्तव्यता कही, वैसे कालोद के सम्बन्ध में भी कह देनी चाहिए । विशेष इतना है कि वहाँ लवणसमुद्र के स्थान पर कालोदधि का नाम कहना । भगवन् ! आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में सूर्य, ईशानकोण में उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ? धातकीखण्ड की वक्तव्यता के समान आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध की वक्तव्यता कहनी चाहिए । विशेष यह है कि धातकीखण्ड के स्थान में आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध का नाम कहना; यावत्-आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में मन्दरपर्वतों के पूर्व-पश्चिम में न तो अवसर्पिणी है, और न ही उत्सर्पिणी है, किन्तु हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ सदैव अवस्थित काल कहा गया है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है !, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' । शतक-५ उद्देशक-२ | [२२०] राजगृह नगर में...यावत् (श्री गौतमस्वामी ने) इस प्रकार पूछा- भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात (ओस आदि से कुछ स्निग्ध, या गीली हवा), पथ्यवात (वनस्पति आदि के लिए हितकर वायु), मन्दवात (धीमे-धीमे चलने वाली हवा), तथा महावात, प्रचण्ड तूफानी वायु बहती हैं ? हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त वायु (हवाएँ) बहती हैं । भगवन् ! पूर्व दिशा से ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं ?' हाँ, गौतम ! बहती हैं । इसी तरह पश्चिम में, दक्षिण में, उत्तर में, ईशानकोण में, आग्नेयकोण में, नैऋत्यकोण में और वायव्यकोण में (पूर्वोक्त वायु बहती हैं ।) भगवन् ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं, तब क्या पश्चिम में भी ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ बहती हैं ?, और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या पूर्व में भी बहती हैं ? हाँ, गौतम ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब वे सब
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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