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भगवती - ३/-/२/१७२
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से अधिक तेज से देदीप्यमान, अत्यन्त वेगवान् खिले हुए किंशुक के फूल के समान लाललाल, महाभयावह एवं भयंकर वज्र को असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के वध के लिए छोड़ा । तत्पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने जब उस जाज्वल्यमान, यावत् भयंकर वज्र को अपने सामने आता हुआ देखा, तब उसे देख कर चिन्तन करने लगा, फिर ( अपने स्थान पर चले जाने की) इच्छा करने लगा, अथवा (वज्र को देखते ही उसने) अपनी दोनों आँखें मूंद लीं और ( वहाँ से चले जाने का पुनः ) पुनः विचार करने लगा । चिन्तन करके वह ज्यों ही स्पृहा करने लगा त्यों ही उसके मुकुट का छोगा टूट गया, हाथों के आभूषण नीचे लटक गए; तथा पैर ऊपर और सिर नीचा करके एवं कांखों में पसीना - सा टपकाता हुआ, वह असुरेन्द चमर उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच होता हुआ,
जम्बूद्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, यावत् जहाँ श्रेष्ठ अशोकवृक्ष था, वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक पर जहाँ मैं ( श्री महावीरस्वामी) था, वहाँ आया । मेरे निकट आकर भयभीत एवं भय से गद्गद स्वरयुक्त चमरेन्द्र —– “भगवन् ! आप ही मेरे लिए शरण हैं" इस प्रकार बोलता हुआ मेरे दोनों पैरों के बीच में शीघ्रता से वेगपूर्वक गिर पड़ा ।
[१७३] उसी समय देवेन्द्र शक्र को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी शक्तिवाला नहीं है, न असुरेन्द्र असुरराज चमर इतना समर्थ है, और न ही असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना विषय है कि वह अरिहन्त भगवन्तों, अर्हन्त भगवान् के चैत्यों अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय लिये बिना स्वयं अपने आश्रय से इतना ऊँचा (उठ) कर यावत् सौधर्मकल्प तक आ सके । अतः वह असुरेन्द्र अवश्य अरहिन्त भगवन्तों यावत् किसी भावितात्मा अनगार के आश्रय से ही इतना ऊपर यावत् सौधर्मकल्प तक आया है । यदि ऐसा है तो उन तथारूप अर्हन्त भगवन्तों एवं अनगारों की (मेरे द्वारा फैंके हुए वज्र से ) अत्यन्त आशातना होने से मुझे महाःदुख होगा । ऐसा विचार करके शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे देखा ! मुझे देखते ही “हा ! हा ! अरे रे! मैं मारा गया !" इस प्रकार ( पश्चात्ताप ) करके उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से वज्र के पीछे-पीछे दौड़ा । वह शक्रेन्द्र तिरछी असंख्यात द्वीप - समुद्रों के बीचोंबीच होता हुआ यावत् उस श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे जहाँ मैं था, वहाँ आया और वहाँ मुझे से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए उस वज्र को उसने पकड़ लिया ।
[ १७४] हे गौतम ! (जिस समय शक्रेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि) उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशाग्र हिलने लगे । तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को ले कर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दननमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके कहा - भगवन् ! आपका ही आश्रय ले कर स्वयं असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे अपनी श्री से भ्रष्ट करने आया था । तब मैंने परिकुपित हो कर उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के वध के लिए वज्र फेंका था । इसके पश्चात् मुझे तत्काल इस प्रकार का आन्तरिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं इतना समर्थ नहीं है कि अपने ही आश्रय से इतना ऊँचा - सौधर्मकल्प तक आ सके, इत्यादि पूर्वोक्त सब बातें शक्रेन्द्र ने कहा सुनाईं यावत् शक्रेन्द्र ने आगे कहा
भगवन् ! फिर मैंने अवधिज्ञान का योग किया । अवधिज्ञान द्वारा आपको देखा ।