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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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से भ्रष्ट करना चाहता हूँ ।"
वह वहाँ से सीधा ईशानकोण में चला गया । फिर उसने वैक्रियसमुद्घात किया; यावत् वह दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ । उसने एक महाघोर, घोराकृतियुक्त, भयंकर, भयंकर आकारवाला, भास्वर, भयानक, गम्भीर, त्रासदायक, काली कृष्णपक्षीय अर्धरात्रि एवं काले उड़दों की राशि के समान काला, एक लाख योजन का ऊँचा, महाकाय शरीर वनाया । वह अपने हाथों को पछाड़ने लगा, पैर पछाड़ने लगा, गर्जना करने लगा, घोड़े की तरह हिनहिनाने लगा, हाथी की तरह किलकिलाहट करने लगा, रथ की तरह घनघनाहट करने लगा, पैरों को जमीन पर जोर से पटकने लगा, भूमि पर जो से थप्पड़ मारने लगा, सिंहनाद करने लगा, उछलने लगा, पछाड़ मारने लगा, त्रिपदी को छेदने लगा; बांई भुजा ऊँची करने लगा, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी अँगुली और अंगूठे के नख द्वारा अपने मुख को तिरछा फाड़ कर बिडम्बित करने लगा और बड़े जोर-जोर से कलकल शब्द करने लगा । यों करता हुआ वह चमरेन्द्र स्वयं अकेला, परिघरत्न ले कर ऊपर आकाश में उड़ा । वह मानो अधोलोक क्षुब्ध करता हुआ, पृथ्वीतल को मानो कंपाता हुआ, तिरछे लोक को खींचता हुआ-सा, गगनतल को मानो फोड़ता हुआ, कही गर्जना करता हुआ, कहीं विद्युत् की तरह चमकता हुआ, कहीं वर्षा के समान बरसता हुआ, कहीं धूल का ढेर उड़ाता हुआ, कहीं गाढान्धकार का दृश्य उपस्थित करता हुआ, तथा वाणव्यन्तर देवों को त्रास पहुँचाता हुआ, ज्योतिषीदेवों को दो भागों में विभक्त करता हुआ एवं आत्मरक्षक देवों को भगाता हुआ, परिघरत्न को आकाश में घुमाता हुआ, उसे विशेष रूप से चमकाता हुआ, उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् तिरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों के बीचोंबीच हो कर निकला । जिस ओर सौधर्मकल्प था, सौधर्मावतंसक विमान था, और जहाँ सुधर्मासभा थी, उसके निकट पहुँचा । उसने एक पैर पद्मवरवेदिका पर रखा, और दूसरा पैर सुधर्मा सभा में रखा । फिर बड़े जोर से हुंकार करके उसने पर घिरत्न से तीन बार इन्द्रकील को पीटा और कहा - 'अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कहाँ है ? कहाँ हैं उसके वे चौरासी हजार सामानिक देव ? यावत् कहाँ है उसके वे तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव ? कहाँ गई वे अनेक करोड़ अप्सराएँ ? आज ही मैं उन सबको मार डालता हूँ, आज ही उनका मैं वध कर डालता हूँ । जो अप्सराएँ मेरे अधीन नहीं हैं, वे अभी मेरी वशवर्तिनी हो जाएँ ।' ऐसा करके चमरेन्द्र ने वे अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनोहर और कठोर उद्गार निकाले ।
तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ( चमरेन्द्र के) इस अनिष्ट, यावत् अमनोज्ञ और अश्रुतपूर्व कर्णकटु वचन सुन-समझ करके एकदम कोपायमान हो गया । यावत् क्रोध से बड़बड़ाने लगा तथा ललाट पर तीन सल पड़ें, इस प्रकार से भुकृटि चढ़ा कर शक्रेन्द्र असुरेन्द्र असुरराज चमर से यों बोला- हे ! अप्रार्थित (अनिष्ट - मरण) के प्रार्थक (इच्छुक ) ! यावत् हीनपुण्या चतुर्दशी के जन्मे हुए असुरेन्द्र ! असुरराज ! चमर ! आज तू नहीं रहेगा; आज तेरी खैर नहीं है । यों कह कर अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे-बैठे ही शक्रेन्द्र ने अपना वज्र उठाया और उस जाज्वल्यमान, विस्फोट करते हुए, तड़-तड़ शब्द करते हुए हजारों उल्काएँ छोड़ते हुए, हजारों अग्निज्वालाओं को छोड़ते हुए, हजारों अंगारों को बिखेरते हुए, हजारों स्फुलिंगों की ज्वालाओं से उस पर दृष्टि फैंकते ही आँखों के आगे पकाचौंध के कारण रुकावट डालने वाले, अग्नि