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समवाय-१९/४९
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उन्नीस तीर्थंकर अगार-वास में रह कर फिर मुंडित होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या को प्राप्त हुए-गृहवास त्याग कर दीक्षित हुए ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है ।
सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम है । आनत कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम है । प्राणत कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है । वहां जो देव आनत, प्राणत, नत, विनत, घन, सुषिर, इन्द्र, इन्द्रकान्त और इन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है । वे देव साढ़े नौ मासों के बाद आनप्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों के उन्नीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो उन्नीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । समवाय-१९ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(समवाय-२०[५०] बीस असमाधिस्थान हैं । १. दव-दव करते हुए जल्दी-जल्दी चलना, २. अप्रमार्जितचारी होना, ३. दुष्प्रमार्जितचारी होना, ४. अतिरिक्त शय्या-आसन रखना, ५. रानिक साधुओं का पराभव करना, ६. स्थविर साधुओं को दोष लगाकर उनका उपघात या अपमान करना ७. भूतों (एकेन्द्रिय जीवों) का व्यर्थ उपघात करना, ८. सदा रोषयुक्त प्रवृत्ति करना, ९. अतिक्रोध करना, १०. पीठ पीछे दूसरे का अवर्णवाद करना, ११. सदा ही दूसरों के गुणों का विलोप करना, जो व्यक्ति दास या चोर नहीं है, उसे दास या चोर आदि कहना, १२. नित्य नये अधिकरणों को उत्पन्न करना ।
१३. क्षमा किये हुए या उपशान्त हुए अधिकरणों को पुनः पुनः जागृत करना, १४. सरजस्क हाथ-पैर रखना, सरजस्क हाथ वाले व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना और सरजस्क स्थंडिल आदि पर चलना, सरजस्क आसनादि पर बैठना, १५. अकाल में स्वाध्याय करना और काल में स्वाध्याय नहीं करना, १६. कलह करना, १७. रात्रि में उच्च स्वर से स्वाध्याय और वार्तालाप करना, १८. गण या संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना, १९. सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त होने तक खाते-पीते रहना तथा २०. एषणासमिति का पालन नहीं करना और अनेषणीय भक्त-पान को ग्रहण करना ।
मुनिसुव्रत अर्हत् बीस धनुष ऊंचे थे । सभी घनोदधिवातवलय बीस हजार योजन मोटे कहे गये हैं । प्राणत देवराज देवेन्द्र के सामानिक देव बीस हजार कहे गये हैं । नपुंसक वेदनीय कर्म की, नवीन कर्म-बन्ध की अपेक्षा स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम कही गई है । प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु नामक अधिकार कहे गये हैं । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मंडल (आर-चक्र) बीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल परिमित कहा गया है । अभिप्राय यह है कि दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणीकाल मिल कर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का