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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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समय में दण्ड का संहरण किया जाता है ।
[७९०] भगवान् महावीर के उत्कृष्ट ८०० ऐसे शिष्य थे जिनको कल्याणकारी अनुत्तरोपपातिक देवगति यावत् भविष्य में (भद्र) मोक्ष गति निश्चित है ।
[ ७९१] वाणव्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं, यथा-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व । इन आठ वाणव्यन्तर देवों के आठ चैत्य वृक्ष है, यथा[७९२] पिशाचों का कदम्ब वृक्ष, यक्षों का चैत्य वृक्ष, भूतों का तुलसी वृक्ष, राक्षसों वृक्ष ।
[७९३] किन्नरों का अशोक वृक्ष, किंपुरुषों का चंपक वृक्ष, भुजंगों का नाग वृक्ष, गंधर्वों का तिंदुक वृक्ष
[ ७९४] रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूमि भाग से ८०० योजन ऊंचे ऊपर की ओर सूर्य का विमान गति करता है ।
[७९५] आठ नक्षत्र चन्द्र के साथ स्पर्श करके गति करते हैं, यथा--कृतिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा ।
[ ७९६] जम्बूद्वीप के द्वार आठ योजन ऊँचे हैं । सभी द्वीप समुद्रों के द्वार आठ योजन ऊँचे हैं ।
[७९७] पुरुष वेदनीय कर्म की जघन्य आठ वर्ष की बन्ध स्थिति है । यशोकीर्ति नामकर्म की जघन्य बन्धस्थिति आठ मुहूर्त की है । उच्चगोत्र कर्म की भी इतनी ही है । [७९८] तेइन्द्रिय की आठ लाख कुल कौड़ी हैं ।
[ ७९९] जीवों ने आठ स्थानों में निवर्तित - संचित पुद्गल पापकर्म के रूप में चयन किये हैं, चयन करते हैं, और चयन करेंगे । यथा - प्रथम समय नैरयिक निवर्तित यावत्प्रथम समय देव निवर्तित। इसी प्रकार उपचयन, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के तीन तीन दण्डक कहने चाहिये ।
आठ प्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं । अष्ट प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अनन्त हैं । यावत् आठ गुण रुक्ष पुद्गल अनन्त हैं ।
स्थान- ८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
स्थान- ९
[८००] नौ प्रकार के सांभोगिक श्रमण निर्ग्रन्थों को विसंभोगी करे तो भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता है, यथा आचार्य के प्रत्यनीक को, उपाध्याय के प्रत्यनीक को, स्थविरों के प्रत्यनीक को, कुल के प्रत्यनीक को, गण के प्रत्यनीक को, संघ के प्रत्यनीक को, ज्ञान के प्रत्यनीक को, दर्शन के प्रत्यनीक को, चारित्र के प्रत्यनीक को ।
[८०१ ] ब्रह्मचर्य ( आचारसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध) के नौ अध्ययन हैं, यथा-शस्त्र परिज्ञा, लोक विजय यावत् - उपधान श्रुत और महापरिज्ञा ।
[८०२ ] ब्रह्मचर्य की गुप्ति (रक्षा) नौ प्रकार की हैं, यथा - एकान्त ( पृथक्) शयन और आसन का सेवन करना चाहिये, किन्तु स्त्री, पशु और नपुंसक के संसर्गवाले शयनासन का सेवन नहीं करना चाहिए, स्त्री कथा नहीं कहनी चाहिये, स्त्री के स्थान में निवास नहीं करना