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स्थान-९/-/८०२
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चाहिए, स्त्री की मनोहर इन्द्रियों के दर्शन और ध्यान नहीं करना चाहिए, विकार वर्धक रस का आस्वादन नहीं करना चाहिए, आहारादि की अतिमात्रा नहीं लेनी चाहिए, पूर्वानुभूत रति-क्रीड़ा का स्मरण नहीं करना चाहिए, स्त्री के रागजन्य शब्द और रूप की तथा स्त्री की प्रशंसा नहीं सुननी चाहिए, शारीरिक सुखादि में आसक्त नहीं होना चाहिए।
__ब्रह्मचर्य की अगुप्ति नव प्रकार की हैं, यथा-एकान्त शयन और आसन का सेवन नहीं करे अपितु स्त्री, पशु तथा नपुंसक सेवित शयनासन का उपयोग करे, स्त्री कथा कहे, स्त्री स्थानों का सेवन करे, स्त्रियों की इन्द्रियों का दर्शन-यावत् ध्यान करे, विकार वर्धक आहार करे, आहार आदि अधिक मात्रा में सेवन करे, पूर्वानुभूत रतिक्रीड़ा का स्मरण करे, स्त्रियों के शब्द तथा रूप की प्रशंसा करे, शारीरिक सुखादि में आसक्त रहे ।
[८०३] अभिनन्दन अरहन्त के पश्चात् सुमतिनाथ अरहन्त नव लाख क्रोड सागर के पश्चात् उत्पन्न हये ।
[८०४] शास्वत पदार्थ नव हैं, यथा-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष ।
[८०५] संसारी जीव नौ प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकाय, यावत् वनस्पतिकाय, एवं बेइन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय ।
पृथ्वीकायिक जीवों की नौ गति और नौ आगति । यथा-पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो पृथ्वीकायिकों से यावत पंचेन्द्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं । पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकपन को छोड़कर पृथ्वीकायिक रूप में यावत् पंचेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार अप्कायिक जीव-यावत् पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं ।
सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, यथा-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, नैरयिक, तिर्यचपंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव, सिद्ध ।
सर्व जीवो नौ प्रकार के हैं, यथा-प्रथम समयोत्पन्न नैरयिक, अप्रथमसमयोत्पन्न नैरयिक यावत् अप्रथम समयोत्पन्न देव और सिद्ध ।
सर्व जीवों की अवगाहना नौ प्रकार की हैं, यथा-पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना, अप्कायिक जीवों की अवगाहना, यावत् वनस्पति कायिक जीवों की अवगाहना, बेइन्द्रय जीवों की अवगाहना, तेन्द्रिय जीवों की अवगाहना, चउरिन्द्रिय जीवों की अवगाहना और पंचेन्द्रिय जीवों की अवगाहना ।
____ संसारी जीव नौ प्रकार के थे, हैं और रहेंगे । यथा-पृथ्वीकायिक रूप में यावत् पंचेन्द्रिय रूप में ।
[८०६] नौ कारणों से रोगोत्पत्ती होती है, यथा-अति आहार करने से, अहितकारी आहार करने से, अति निंद्रा लेने से, अति जागने से, मल का वेग रोकने से, मूत्र का वेग रोकने से, अति चलने से, प्रतिकूल भोजन करने से, कामवेग को रोकने से ।।
[८०७] दर्शनावरणीय कर्म नौ प्रकार का है, यथा-निंद्रा, निंद्रा-निंद्रा, प्रचला, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धी, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण ।
[८०८] अभिजित् नक्षत्र कुछ अधिक नौ मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करते हैं । अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चन्द्र के साथ उत्तर से योग करते हैं, यथा-अभिजित्,