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स्थान- ८/-/७८२
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[७८२] अष्ट अष्टमिका भिक्षुपड़िमा का सूत्रानुसार आराधन यावत् सूत्रानुसार पालन ६४ अहोरात्र में होता है और उसमें २८८ वार भिक्षा ली जाती है ।
[ ७८३] संसारी जीव आठ प्रकार के हैं, यथा - प्रथम समयोत्पन्न नैरयिक, अप्रथम समयोत्पन्न नैरयिक, यावत् - अप्रथम समयोत्पन्न देव ।
मनुष्य,
सर्वजीव आठ प्रकार के हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंच योनिक, तिर्यंचनियां, मनुष्यनियां, देव, देवियां, सिद्ध ।
अथवा सर्वजीव आठ प्रकार के हैं, यथा- आभिनिबोधिक ज्ञानी, यावत् - केवलज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंग ज्ञानी ।
[७८४] संयम आठ प्रकार का है, यथा- प्रथम समय - सूक्ष्म सम्पराय - सराग-संयम, अप्रथम समय-सूक्ष्म संपराय सराग संयम, प्रथम समय - बादर सराग संयम, अप्रथम समयबादर - सरागसंयम, प्रथम समय-उपशान्त कषाय- वीतराग संयम, अप्रथम समय-उपशान्त कषाय- वीतराग संयम, प्रथम समय-क्षीण कषाय वीतराग संयम और अप्रथम समय - क्षीण कषाय वीतराग संयम ।
[७८५] पृथ्वीया आठ कही है । रत्नप्रभा यावत् अधः सप्तमी और ईषत्प्राग्भारा 1 ईषत्प्राभारा पृथ्वी के बहुमध्य देश भागमें आठ योजन प्रमाण क्षेत्र है, वह आठ योजन स्थूल है । ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी के आठ नाम हैं, यथा-ईषत् ईषत्प्राग्भारा, तनु, तनु तनु, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय |
[७८६] आठ आवश्यक कार्यों के लिए सम्यक्प्रकार से उद्यम, प्रयत्न और पराक्रम करना चाहिये किन्तु इनके लिए प्रमाद नहीं करना चाहिए, यथा- अश्रुत धर्म को सम्यक् प्रकार से सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिये । श्रुत धर्म को ग्रहण करने और धारण करने के लिए तत्पर रहना चाहिए । संयम स्वीकार करने के पश्चात् पापकर्म न करने के लिए तत्पर रहना चाहिए | तपश्चर्या से पुराने पाप कर्मों की निर्जरा करने के लिए तथा आत्मशुद्धि के लिए तत्पर रहना चाहिए । निराश्रित परिजन को आश्रय देने के लिए तत्पर रहना चाहिये । शैक्ष ( नवदीक्षित) को आचार और गोचरी विषयक मर्यादा सिखाने के लिए तत्पर रहना चाहिए । लान की ग्लानि रहित सेवा करने के लिए तत्पर रहना चाहिये । साधर्मिकों में कलह उत्पन्न होने पर राग-द्वेष रहित होकर पक्ष ग्रहण किये बिना मध्यस्थ भाव से साधार्मिकों के बोलचाल, कलह, और तुं-तुं मैं-मैं को शान्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये ।
[७८७] महाशुक्र और सहस्त्रारकल्प में विमान आठसौ योजन के ऊंचे हैं । [७८८] भगवान् अरिष्टनेमिनाथ के आठसौ ऐसे वादि मुनियों की सम्पदा थी जो देव, मनुष्य और असुरों की पर्षदा में किसी से पराजित होने वाले नहीं थे ।
[७८९] केवली समुद्घात आठ समय का होता है, यथा- प्रथम समय में स्वदेह प्रमाण नीचे ऊँचे, लम्बा और पोला चौदह रज्जु (लोक) प्रमाण दण्ड किया जाता है, द्वितीय समय में पूर्व और पश्चिम में लोकान्त पर्यन्त कपाट किये जाते हैं, तृतीय समय में दक्षिण और उत्तर में लोकान्त पर्यन्त मंधान किया जाता है, चतुर्थ समय में रिक्त स्थानों की पूर्ति करके लोक को पूरित किया जाता है, पाँचवें समय में आंतरों का संहरण किया जाता है, छट्टे समय में मंथान का संहरण किया जाता है, सातवें समय में कपाट का संहरण किया जाता है, आठवें