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स्थान-५/२/५०२
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[५०२] जिसमें पृथ्वी जल, पुष्प और फलों को सूर्य रस देता है और थोड़ी वर्षा से भी पाक अच्छा होता है उसे आदित्य संवत्सर कहते हैं ।
[५०३] जिसमें क्षण, लव, दिवस और ऋतु सूर्य से तप्त रहते हैं, और जिसमें सदा धूल उड़ती रहती है । उसे अभिवर्धित संवत्सर कहते हैं ।
५०४] शरीर से जीव के निकलने के पांच मार्ग हैं, यथा- पैर, उरू, वक्षस्थल, शिर, सर्वाङ्ग । पैरों से निकलने पर जीव नरकगामी होता है, उरू से निकलने पर जीव तिर्यंचगामी होता है, वक्षस्थल से निकलने पर जीव मनुष्य गति प्राप्त होता है । शिर से निकलने पर जीव देवगतिगामी होता है, सर्वांग से निकलने पर जीव मोक्षगामी होता है ।
[५०५] छेदन पांच प्रकार के हैं, यथा- उत्पाद छेदन-नवीन पर्याय की अपेक्षा से पूर्वपर्याय का छेदन । व्यय छेदन-पूर्व पर्याय का व्यय । बंध छेदन-कर्मबंध का छेदन । प्रदेश छेदन-जीव द्रव्य के बुद्धि से कल्पित प्रदेश । द्विधाकार छेदन-जीवादिद्रव्यों के दो विभाग करना ।
आनन्तर्य पांच प्रकार का है, यथा- उत्पादानान्तर्य-जीवों की निरन्तर उत्पत्ति । व्ययानन्तर्य-जीवों का निरन्तर मरण । प्रदेशानन्तर्य-प्रदेशों का निरन्तर अविरह । समयानन्तर्यसमय का निरन्तर अविरह । सामान्यानन्तर्य-उत्पाद आदि के अभाव में निरन्तर अविरह ।
अनन्त पांच प्रकार के हैं, यथा- नाम अनन्त, स्थापना अनन्त, द्रव्य अनन्त, गणना अनन्त, प्रदेशानन्त ।
अनन्तक पांच प्रकार के हैं, यथा- एकतः अनन्तक-दीर्धता की अपेक्षा जो अनन्त है एक श्रेणी का क्षेत्र । द्विधा अनन्तक-लम्बाई और चौड़ाई की अपेक्षा से जो अनन्त हो । देश विस्तार अनन्तक रूचक प्रदेश से पूर्व आदि किसी एक दिशा में देश का जो विस्तार हो । सर्वविस्तार अनन्तक-अनन्तप्रदेशी सम्पूर्ण आकाश । शाश्वतानन्तक-अनन्त समय की स्थितिवाले जीवादि द्रव्य ।
[५०६] ज्ञान पांच प्रकार के हैं, यथा- आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, केवल ज्ञान ।
[५०७] ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार के है, यथा- आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म यावत्-केवलज्ञानावरणीय कर्म ।
[५०८] स्वाध्याय पांच प्रकार के हैं, यथा- वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा ।
[५०९] प्रत्याख्यान पांच प्रकार के हैं, यथा- श्रद्धा शुद्ध, विनय शुद्ध, अनुभाषना शुद्ध, अनुपालना शुद्ध, भाव शुद्ध ।
[५१०] प्रतिक्रमण पांच प्रकार के हैं, यथा- आश्रव द्वार–प्रतिक्रमण, मिथ्यात्वप्रतिक्रमण, कषाय-प्रतिक्रमण, योग-प्रतिक्रमण, भाव-प्रतिक्रमण ।
[५११] पांच कारणों से गुरु शिष्य को वाचना देते है-यथा- संग्रह के लिये शिष्यों को सूत्र का ज्ञान कराने के लिये । उपग्रह के लिये गच्छ पर उपकार करने के लिये । निर्जरा के लिये-शिष्यों को वाचना देने से कर्मों की निर्जरा होती है । सूत्र ज्ञान दृढ़ करने के लिये । सूत्र का विच्छेद न होने देने के लिये ।