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________________ १२२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद रूप तप । विपुल इन्द्रिय निग्रह-इन्द्रियों का महान् निग्रह । [४९४] उत्कट पुरुष पांच प्रकार के हैं, यथा- दण्ड उत्कट-अपराध करने पर कठोर दण्ड देनेवाला । राज्योत्कट-ऐश्वर्य में उत्कृष्ट । स्तेन उत्कट-चोरी करने में उत्कृष्ट । देशोत्कटदेश में उत्कृष्ट । सर्वोत्कट-सब से उत्कृष्ट ।। [४९५] समितियां पांच हैं, यथा- इर्या समिति यावत्-पारिष्ठिपनिका समिति । [४९६] संसारी जीव पांच प्रकार के हैं, यथा- एकेन्द्रिय-यावत्-पंचेन्द्रिय । एकेन्द्रिय जीव पांच गतियों में पांच गतियों से आकर उत्पन्न होते हैं । एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में एकेन्द्रियों से-यावत्-पंचेन्द्रियों से आकर उत्पन्न होता है । एकेन्द्रिय एकेन्द्रियपन को छोड़कर एकेन्द्रिय रूप में-यावत्-पंचेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है । द्वीन्द्रिय जीव पांच स्थानों में पांच स्थानों से आकर उत्पन्न होते हैं । द्वीन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में यावत्-पंचेन्द्रियों में आकर उत्पन्न होते हैं । त्रीन्दिय जीव पांच स्थानों में पांच स्थानों से आकर उत्पन्न होते हैं । त्रीन्दिय जीव एकेन्द्रियों में-यावत्-पंचेन्द्रियों में आकर उत्पन्न होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीव पांच स्थानों में पांच स्थानों से आकर उत्पन्न होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में-यावत्-पञ्चेन्द्रियों में आकर उत्पन्न होते हैं । ___ पञ्चेन्द्रिय जीव पांच स्थानों में पांच स्थानों से आकर उत्पन्न होते हैं । पञ्चेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में-यावत्-पञ्चेन्द्रियों में आकर उत्पन्न होते हैं । सभी जीव पांच प्रकार के हैं, यथा- क्रोध कषायी-यावत्-अकषायी । अथवा सभी जीव पांच प्रकार के हैं, यथा- नैरयिक-यावत्-सिद्ध । [४९७] हे भगवन् ! चणा, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, बाल, कुलथ, चँवला, तुवर और कालाचणा कोठे में रखे हुए इन धान्यों की कितनी स्थिति है ? हे गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त उत्कृष्ट पांच वर्ष । इसके पश्चात् योनि (जीवोत्पत्तिस्थान) कुमला जाती है और शनैः शनैः योनि विच्छेद हो जाता है । [४९८] संवत्सर पांच प्रकार के हैं, यथा- नक्षत्र संवत्सर, युग संवत्सर, प्रमाण संवत्सर, लक्षण संवत्सर, शनैश्चर संवत्सर । युग संवत्सर पांच प्रकार के हैं, यथा- चंद्र, चंद्र, अभिवर्धित, चंद्र, अभिवर्धित । प्रमाण संवत्सर पांच प्रकार का है, यथा- नक्षत्र संवत्सर, चंद्र संवत्सर, ऋतु संवत्सर, आदित्य संवत्सर, अभिवर्धित संवत्सर । लक्षण संवत्सर पंच प्रकार का है, यथा [४९९] जिस तिथि में जिस नक्षत्र का योग होना चाहिए उस नक्षत्र का उसी तिथि में योग होता है जिसमें ऋतुओं का परिणमन क्रमशः होता रहता है, जिसमें सरदी और गरमी का प्रमाण बराबर रहता है, और जिसमें वर्षा अच्छी होती है वह नक्षत्र संवत्सर कहा है । [५००]जिसमें सभी पूर्णिमाओं में चन्द्र का योग रहता है, जिसमें नक्षत्रों की विषम गति होती है । जिसमें अतिशीत और अति ताप पड़ता है, और जिसमें वर्षा अधिक होती है वह चंद्र संवत्सर होता है । [५०१] जिसमें वृक्षों का यथासमय परिणमन नहीं होता है, ऋतु के बिना फल लगते हैं, वर्षा भी नहीं होती है उसे कर्म संवत्सर या ऋतु संवत्सर कहते हैं |
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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