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स्थान- ४/४/४१८
मद्य जैसा है । क्षीरोद समुद्र के पानी का स्वाद दूध जैसा है । घृतोद समुद्र के पानी का स्वाद घी जैसा है ।
[४१९] आवर्त चार प्रकार के हैं । यथा- खरावर्त - समुद्र में चक्र की तरह पानी का घूमना । उन्नतावर्त - पर्वत पर चक्र की तरह घूमकर चढ़नेवाला मार्ग । गूढ़ावर्त-दड़ी पर रस्सी से की जानेवाली गुंथन । आमिषावर्त-मांस के लिए आकाश में पक्षियों का घूमना । कषाय चार प्रकार के हैं । यथा- खरावर्त समान क्रोध । उन्नतावर्त समान मान । गूढावर्त समान - माया । आमिषावर्त समान लोभ ।
खरावर्त समान क्रोध करने वाला जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है ।
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इसी प्रकार उन्नतावर्त समान मान करने वाला जीव । गूढ़ावर्त समान माया करने वाला जीव, और आमिषावर्त समान लोभ करने वाला जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है . [४२०] अनुराधा नक्षत्र के चार तारे हैं । इसी प्रकार पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के चार-चार तारे हैं ।
[४२१] चार स्थानों में संचित पुद्गल पाप कर्म रूप में एकत्र हुए हैं, होते हैं और भविष्य में भी होंगे । यथा - नारकीय जीवन में एकत्रित पुद्गल । तिर्यंच जीवन में एकत्रित पुद्गल । मनुष्य जीवन में एकत्रित पुद्गल । देव जीवन में एकत्रित पुद्गल । इसी प्रकार पुद्गलों का उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरा के एक-एक सूत्र कहें ।
[४२२] चार प्रदेश वाले स्कन्ध अनेक हैं । चार आकाश प्रदेश में रहे हुए पुद्गल अनन्त हैं । चार गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं । चार गुण रुखे पुद्गल अनन्त हैं ।
स्थान- ४ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
स्थान- ५
उद्देशक - १
। यथा- प्राणातिपात से सर्वथा विरत होना - यावत्
[४२३] महाव्रत पाँच कहे गये हैं
परिग्रह से सर्वथा विरत होना ।
अणुव्रत पाँच कहे गये हैं । यथा- स्थूल प्राणातिपात से विरत होना । स्थूल मृषावाद से विरत होना । स्थूल अदत्तादान से विरत होना । स्व- स्त्री में सन्तुष्ट रहना । इच्छाओं (परिग्रह) की मर्यादा करना ।
[४२४] वर्ण पांच कहे गये हैं । यथा- कृष्ण, नील, रक्त, पीत, शुक्ल । रस पाँच कहे गये हैं । यथा- तिक्त यावत् - मधुर । काम गुण पांच कहे गये हैं । यथा - शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श । इन पांचों में जीव आसक्त हो जाते हैं । शब्द, यावत् स्पर्श में । इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव राग भाव को पाप्त होते हैं । इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव मूर्छा भाव को पाप्त होते हैं इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव गृद्धि भाव को पाप्त होते हैं इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव आकांक्षा भाव को पाप्त होते हैं इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव मरण को पाप्त होते हैं
इन पांचों का ज्ञान न होना जीवों के अहित के लिए होता है । इन पांचों का ज्ञान