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________________ २५४४६* -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी होता है। मोह और क्षोभ से युक्त भावों को कलुषभाव कहते हैं। शरीर के ऐश्वर्य व उसकी शोभा बढ़ने से मान होता है। यदि कोई अपमान करता है, शरीर के सुख में बाधक होता है तब क्रोध हो जाता है। शरीर के विषयादि सुख के लिये लोभ तथा मायाचार करता है, शरीर के मोह से चारों ही कषाय भड़कती हैं, भावों में कलुषता आती है तब हिंसादि पाप होते हैं जिससे तीनों प्रकार के कर्मों का बंध होता है। इसकी विशेषता और परिणाम आगे गाथा में बताते हैं - जदि कलुस भाव दिनं दोघं उपवन नंतनंताई । तदि दुग्गड़ गइ गमनं, कलरंजन भाव नरय वीयम्मि ॥ • १२४ ॥ अन्वयार्थ - (जदि कलुस भाव दिट्ठ) यदि कलुष भावों को ही देखते हो, उन्हीं में लिप्त तन्मय होने से (दोषं उववन्न नंतनंताई) अनन्तानंत दोष पैदा होते हैं ( तदि दुग्गड़ गइ गमनं) तब दुर्गतियों में गमन होता है (कलरंजन भाव नरय वीयम्मि) कलरंजन भाव से नरक का बीज बोता है। विशेषार्थ कलरंजन भाव से जब जीव कलुष भावों को देखता है, उन्हीं में लिप्त तन्मय रहता है तब अनंतानंत दोष पैदा हो जाते हैं। कषायों की तीव्रता प्राणी के रौद्र ध्यान हो जाता है, तब हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह की वृद्धि में आनंद मानता है, कभी आर्तध्यान होने से शोक करता है। इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा चिंतवन, निदान बंध होने से महा विलाप करता है। परिणामों में अनंत गुणी मलिनता बढ़ती जाती है, अनंतानुबंधी कषाय होने से यह प्राणी नरकादि दुर्गतियों में जाने के लिये पाप बांध लेता है । - मिथ्यात्व से प्राप्त हुई सुदृढ़ कुबुद्धि ही सारे अनर्थों की जड़ है, महान व्यामोह के कारण देह आदि में प्रगट हुई आत्म बुद्धि के द्वारा जब तक मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ, दुर्बल हूँ, उन्नत हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ, यह सब कुछ मेरा ही है तथा विधि, निषेध पुण्य-पाप और शुभाशुभ कर्म आदि व्यवहार होते रहते हैं, तब तक इसी व्यवहार में बंधे रहने के कारण जन्म-मृत्यु रूप संसार समुद्र से जीव का लेश मात्र भी छुटकारा नहीं हो सकता और इसीलिये प्रिय-अप्रिय विषयों की वेदना से चित्त के चिंतित रहने के कारण जीव अत्यंत व्याकुल रहा करता है, जब तक शरीर धारण करना पड़ता है, शरीरादि का संयोग है तब तक स्वप्न में भी लेश मात्र शांति का अनुभव नहीं हो सकता। गाथा १२४ १२५ ****** भ्रांति रूप मिथ्या ज्ञान से पहले राग-द्वेष आदि चित्त के दोष प्रगट होते हैं, उनसे पाप-विषयादि में प्रवृत्ति होती है। पाप विषय कषाय में प्रवृत्ति होने से नरकादि दुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। इस देह को मैं मानना, सबसे बड़ा यह पाप है । सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पाप का यह बाप है । इस देह को मैं मानकर, बन्दी हुआ यह आप है । जो शुद्ध शाश्वत मुक्त है, अच्युत तथा निष्पाप है ॥ इस देह को मैं मानने का नाम ही अज्ञान है । यह ही अविद्या आवरण, माया यही अभिमान है ॥ संसार की जड़ है यही, सब क्लेश की यह खान है। अध्यास यह कहलाय है, विपरीत यह ही ज्ञान है ॥ इसी की विशेषता रूप और आगे गाथा कहते हैंकलं च किलि किलि सहियं, कलं च कर्म भावना जाने । अगुरुं च कल सहावं, कलरंजन दोस निगोय वासम्मि ।। १२५ ।। अन्वयार्थ (कलं च किलि किलि सहियं) शरीर के एकत्व सहित दुःख होने पर चिल्लाता है, हाय-हाय करता है, शरीर के संयोग से रात-दिन किल • किल भय चिंता दुःख में पड़ा रहता है (कलं च कर्म भावना जाने ) शरीर के कारण ही हमेशा कर्म करने की भावना होती है, कुछ न कुछ कर्म करने में लगा रहता है (अगुरुं च कल सहावं) अगुरु माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, मित्र आदि का सम्बंध भी शरीर के कारण होता है (कलरंजन दोस निगोय वासम्मि) इस शरीर और संयोग को रंजायमान करने के दोष के कारण निगोद में वास करना पड़ता है। विशेषार्थ शरीर संयोग में एकत्व के कारण जीव निरंतर दुःखी रहता है, हाय-हाय करता है, हमेशा कर्म करने की भावना बनी रहती है। कुछ न कुछ करता ही रहता है, कभी भी साता से शांत नहीं बैठता। शरीर के स्वभाव से माता-पिता, पत्नी, पुत्र आदि अगुरुओं का संयोग सम्बंध होता है, इन सबकी सम्हाल और शरीरासक्ति में रंजायमान होने से निगोद में वास करना पड़ता है। शरीर में पीड़ा आदि होने से हमेशा भयभीत चिंतित दुःखी रहता है, रात-दिन घर परिवार की हाय-हाय, किल-किल में लगा रहता है। अगुरुओं का ऐसा उपदेश मिलता है जिससे मोह में अंधा और रागी हो जाता है। शरीर से कुछ - *
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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