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________________ * 1-3 --SHES *-* गाथा - १२६-१२८** *** क्लेश भाव सहित मन वचन काय की क्रिया से विशेष कर्मों की वृद्धि होती है। मोह भाव, पाप-विषय-कषाय में रत करके नरक का पात्र बनाता है; अत: द्वेष के सर्वथा अभाव के लिये संसार में कहीं भी राग नहीं करना चाहिये । द्वेष के स्थूल रूप बैर ईर्ष्या घृणा क्रोध एवं हिंसा आदि हैं। इस देह को मैं मानने से, काम शत्रु सताय है। पूरी न हो जो कामना तो,क्रोध चित्त जलाय है॥ हो क्रोध से बुद्धि मलिन,अति मोह में फंस जाय है। मोहान्ध बुद्धि जीव को, नाना नरक दिखलाय है। इस देह को मैं मानने से, एक हो दो भासता । दो से बहुत हो जाय फिर, एक दूसरे को त्रासता ॥ वर्पण भवन कुत्ता घुसा, कुत्ते ही सब दिखलाय है। बैरी समझकर भोंकता ही भोंकता मर जाय है॥ प्रश्न - शरीर की ऐसी क्या विशेषता है, जो जीव को ऐसा फंसाये * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * न कुछ करने की भावना बनी रहती है, हमेशा कुछ न कुछ करता ही रहता है, शरीर के विषयादि सुख में मगन और दुःख पड़ने पर चिंतित होने से आर्त-रौद्र 4 ध्यान में रत रहता है, जिससे तिर्यंच गति निगोद में वास करना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग अहं की वृत्ति होती है। अज्ञान से उत्पन्न होने के कारण यह अहंकार दोष पूर्ण है। इसी के कारण, शरीर, नाम, क्रिया, पदार्थ, भाव, ज्ञान, त्याग, देश, काल आदि के साथ अपना सम्बंध मानकर प्राणी ऊँची-नीची योनियों में जन्मता-मरता रहता है। शरीर को अपना मानना ममता और अपने को शरीर मानना अहंता है। मनुष्य शरीर में ही अहंकार पूर्वक किये हुए शुभ-अशुभ कमाँ का सुख-दु:ख रूप फल भोग अन्य शरीरों में प्राप्त होता है। इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं - कलुस भाव स उत्तं, क्रित सहकार कर्म विधं च । तह धर्म उवएस, विस्वासं अगुरु नरय वासम्मि ॥ १२६ ।। अन्वयार्थ-(कलुस भावस उत्तं) कलुषभाव उसे कहते हैं (क्रित सहकार कर्म विधं च) मन वचन काय की क्रिया के सहकार से कर्मों का बंध बढ़ता जाता है। (तह धम्म उवएस) इसी को धर्म कहा जाता है, अपने कुटुम्ब परिवार का पालन-पोषण करना ही सबसे बड़ा धर्म है (विस्वासं अगुरु) ऐसे अगुरुओं के वचनों पर विश्वास करने से (नरय वासम्मि) नरक में वास करना पड़ता है। विशेषार्थ- कलरंजन दोष से जीव के हमेशा कलुष भाव रहते हैं, मोह और क्षोभ की विशेषता सहित मन वचन काय की क्रिया से विशेष कर्मों का बंध होता है। संसारी जीव मोह में फंसाते हैं, कुटुम्ब परिवार का पालन-पोषण करना, अच्छा खाना-पीना, मौज शौक में रहना, धनादि संग्रह करना, सबको प्रसन्न रखना ही सबसे बड़ा धर्म है, ऐसा उपदेश देते हैं, ऐसे अगुरुओं की बातों पर विश्वास करके घोर हिंसा में और द्रव्य के मोह में फंस जाता है, जिससे पाप कर्म बांधकर नरक में जाना पड़ता है। जिस प्राणी, पदार्थ, घटना, क्रिया और परिस्थिति को मनुष्य अपने दुःख का हेतुया सुख में बाधक समझता है, उसके प्रति अंत:करण में दुर्भाव, असहिष्णुता और उसे नष्ट करने के भाव का नाम द्वेष है, ऐसे ही अपने प्रतिकूल प्राणी का किसी अन्य के द्वारा अनिष्ट होना देखकर चित्त में जो प्रसन्नता होती है वह भी द्वेष का ही सूक्ष्म रूप है। द्वेष भाव में निरंतर अशुभ पापकर्म का बंध होता है। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - कल इस्टं सदिड, कल संजोय नि:कलं विरयं । न्यानंतर अन्यानं, अन्मोयं अनिस्ट दुग्गए पत्तं ॥ १२७ ॥ कल इस्ट अनिस्ट दिस्ट, इस्ट विओय न्यान विन्यानं । अनिस्ट रूव रूवं, अन्मोयं अनिस्ट दुग्गए पत्तं ॥१२८॥ अन्वयार्थ - (कल इस्टं सद्दिट्ट) शरीर को इष्ट प्रिय मानकर उसकी ओर देखना (कल संजोय) शरीर को ही सजाने संवारने में लगे रहना (नि:कलं विरयं) इससे अशरीरी आत्मा का ज्ञान छूट जाता है (न्यानंतर अन्यानं) ज्ञान में अंतर डालकर अज्ञान में रत रहना (अन्मोयं अनिस्ट) अनिष्ट का आलंबन रखना, अनुमोदना करना अर्थात् जो नाशवान अनिष्टकारी है ऐसे शरीरादि में D तन्मय रहना (दुग्गए पत्तं) दुर्गति का पात्र बनाता है अर्थात् दुर्गति में पतन होता है। (कल इस्ट अनिस्ट दिस्टं) शरीर को ही इष्ट-अनिष्ट देखना मानना, शरीर के नाना रूप रंग, अवस्थाओं में किसी को इष्ट मानना, किसी को अनिष्ट मानना, शरीर की सुंदरता, कुरूपता को ही देखना (इस्ट विओय न्यान ** E-E * १००
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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