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गाथा-१२९,१३०
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经长长长长:
*** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * विन्यानं) ज्ञान विज्ञान जो आत्मा को इष्ट है, उसका वियोग करना अर्थात् * भेदज्ञान आत्मज्ञान की बात को न सुनना, न समझना (अनिस्ट रूव रूवं) * जो रूपी पदार्थ अनिष्टकारी हैं उनके रूप को ही देखते रहना (अन्मोयं अनिस्ट) * ऐसे अनिष्टकारी नाशवान जड़ पदार्थों में रत रहने से जीव (दुग्गए पत्तं) दुर्गति का पात्र होता है।
विशेषार्थ - शरीर में कोई विशेषता नहीं है, शरीर तो जड़ पुद्गल मल मूत्र की खानि, हड्डी का ढांचा है। विशेषता तो जीव के अज्ञान की है जो शरीर को इष्ट प्रिय मानकर उसकी ओर देखता है, शरीर को ही सजाने, संवारने में लगा रहता है, अपने आत्म स्वरूप को भूल जाता है । अशरीरी विज्ञानघन आत्म स्वरूप से विरत रहता है, ज्ञान में अंतर डालकर अज्ञान में रत रहता है । जो अनिष्टकारी संसार का कारण है, उसी का आलंबन रखता है इससे दुर्गति का पात्र होता है।
अपना इष्ट भेदविज्ञान है, ऐसे इष्ट का वियोग करता है, कभी भेदविज्ञान आत्मज्ञान की चर्चा नहीं करता है, शरीर के रूप रंग अवस्था को ही इष्ट-अनिष्ट देखता मानता रहता है। सुंदर-कुरूप शरीर को अच्छा-बुरा मानता है, हमेशा शरीर के सुखियापने आसक्ति में लगा रहता है, इससे दुर्गति का पात्र बनता है।
मन, बुद्धि और इन्द्रियों आदि सहित जो स्थूल शरीर देखने में आता है, यह क्षेत्र कहा जाता है। यह क्षेत्र (शरीर) परिवर्तनशील, क्षीण होने वाला एवं नाशवान है और इसमें जो चैतन्य ज्योति जीव आत्मा है वह अशरीरी क्षेत्रज्ञ है, इन दोनों को भिन्न जानना ही ज्ञान है और जो इन्हें भिन्न जानता, अनुभवता है वह ज्ञानी है।
शरीर मैं हूँ इस प्रकार का सम्बंध जोड़ना ही अज्ञान है और इससे शरीरादि के नाश का भय अपने ही नाश का भय हो जाता है तथा शरीर मेरा है, ऐसा सम्बंध जोड़ने से शरीर के लिये खाद्य एवं परिधार्य (पालन-पोषण
योग्य) वस्तुओं की आवश्यकता अपने ही लिये प्रतीत होने लगती है। शरीर * के रूप श्रृंगार आदि से अपने को अच्छा-बुरा मानता है, शरीर को सजाने, * संवारने में ही लगा रहता है। रंग रूप का रसिया अज्ञानी जीव शरीर में मोहित * होकर दुर्गतियों के दु:ख भोगता है।
शरीर पुद्गल कर्म प्रकृति का कार्य है, वह यहाँ प्राप्त होता है और यहीं ***** * * ***
नष्ट हो जाता है। शरीर का रागी अज्ञानी जीव शरीर के सुखियापने, इन्द्रियों के विषयों का पोषण करता है, इसे ही इष्ट मानता है वहाँ आत्मा का अवश्य अनिष्ट होता है। ज्ञान विज्ञान, भेदज्ञान, आत्मज्ञान की बात में उसका मन ही नहीं लगता है। आत्मा का अनिष्ट जिन विषयों से व कषायों से होता है उनको ही वह इष्ट मानकर रागी रहता है इसलिये कलरंजन दोष में फंसा दुर्गतियों में भटकता रहता है।
साधकों से प्राय: यह बड़ी भूल होती है कि सुनते पढ़ते और विचार करते समय वे जिस बात को ठीक समझते हैं, उस पर भी दृढता से स्थिर नहीं रहते तथा उसे विशेष महत्व नहीं देते अत: जब यह जान लें कि शरीर से आत्मा पृथक् है तब इस बात पर दृढ़ता से स्थिर रहें, कभी किसी अवस्था में भी शरीर मैं हूँ ऐसा न मानें।
शरीरादि से अपने को पृथक् जान लेने पर शरीरादि का कोई नाश नहीं होता एवं जानने वाले को भी कोई हानि नहीं होती क्योंकि दोनों पहले से ही पृथक्-पृथक् हैं। नाश होता है केवल अज्ञान का । वस्तु स्थिति ज्यों की त्यों रहती है। अज्ञान के कारण शरीरादि के साथ एकता करके जीव दु:खों को ही भोग रहा है । ज्ञान हो जाने से अज्ञान के कार्यरूप सम्पूर्ण दु:ख मिट जाते हैं।
प्रश्न- जब तक यह अज्ञान न मिटे, तब तक कलरंजन दोष से क्या-क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - कलं सुभावस उत्तं, कलियं विन्यान अन्यान संजोयं। सुतं च विकह सहावं, अन्मोयं अनित सरनि संसारे ॥ १२९ ।। सुतं च अनेय भेयं, वयनं आलाप भेय अभेयं । कल सहाव विन्यानं, अनिस्ट अन्मोय सरनि संसारे ॥१३०॥
अन्वयार्थ- (कलं सुभाव स उत्तं) कलरंजन दोष का स्वभाव ऐसा कहा गया है (कलियं विन्यान) पुद्गल विज्ञान, भौतिक विज्ञान द्वारा (अन्यान संजोयं) अज्ञान में ही लिप्त रहता है (सुतं च विकह सहावं) विकथाओं को पढ़ने सुनने समझने को शास्त्र पठन समझता है (अन्मोयं अनित) नाशवान * क्षणभंगुर पौद्गलिक पदार्थों का आलम्बन करता है, जगत की अनुमोदना । करता है (सरनि संसारे) इससे संसार परिभ्रमण करता है अर्थात् चार गतियों
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*长者俗,层层剖答卷
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