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*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
में जन्म-मरण करता रहता है।
(सुतं च अनेय भेयं) शास्त्रों के अनेक भेद हैं (वयनं आलाप भेय अभेयं) बोलने, बताने, शब्दों के कई भेदाभेद हैं (कल सहाव विन्यानं) शरीर स्वभाव का विज्ञान शारीरिक विज्ञान, जैसे आज परमाणु विज्ञान चल रहा है जिससे भौतिक जगत में क्या-क्या हो रहा है (अनिस्ट अन्मोय) ऐसे अनिष्टकारी विज्ञान का आश्रय आलम्बन लेकर (सरनि संसारे) संसार का मार्ग बढ़ाता है।
विशेषार्थ - अज्ञान के द्वारा जीव शरीर विज्ञान को ही जानता है और शरीर को रंजायमान करने के लिये शास्त्रों के द्वारा राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा, भोजन कथाओं का प्रतिपादन करता है, उन्हीं का आलम्बन रखता है, इन्हीं सब बातों की अनुमोदना करता है जो क्षणभंगुर नाशवान हैं, इस प्रकार कलरंजन दोष से संसार में परिभ्रमण करता है ।
शास्त्रों के अनेक भेद हैं, संसार में अनेक प्रकार के ग्रन्थ शास्त्र पुराण और किताबें है, जिनमें नाना प्रकार की बातें बताई गई हैं। कलरंजन राग वाला जीव अपनी शरीरासक्ति के लिये अपने मन की बातें ग्रहण करता है और कहता है। जो अनिष्टकारी दुर्गति के कारण हिंसादि पाप प्रवृत्ति कराने वाले, विषय- कषायों में लिप्त कराने वाले शरीर विज्ञान के ग्रन्थ हैं उनकी चर्चा करता है, उनको ही पढ़ता है, उनको ही कहता है जिससे संसार परिभ्रमण को बढाता है।
शरीर को आलस्य व सुखियापना पसंद है, आराम से खाना-पीना, सोना पसंद है, इन्द्रिय विषय का पोषण करना पसंद करता है, वहाँ आत्मा का अवश्य अनिष्ट होता है, ऐसा शरीर का मोही- पूजा, सामायिक, स्वध्याय, उपवास, वैयावृत्य, परोपकार कोई भी धर्म के काम नहीं कर सकता । विकथा - राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा, भोजनकथा में ही मगन रहता है, भौतिक विज्ञान, संसारी प्रपंच की लगन रहती है। भेदविज्ञान आत्मज्ञान की बात में उसका मन ही नहीं लगता, शास्त्र ज्ञान को भी मिथ्याज्ञान में परिणमन कर देता है । अध्यात्म ज्ञान का विपरीत अर्थ लगाकर आत्मा को अकर्ता, अभोक्ता मानकर शरीर के आराम व विषय भोग में अधिक स्वच्छंद हो जाता है। शास्त्रों में नाना अपेक्षा भेदाभेद कथन कहा गया है, उस सर्व कथन की भिन्न-भिन्न अपेक्षा व नयों को न समझकर अज्ञानी शरीर का मोही जीव विशेष विषयानुरागी हो जाता है, जिससे संसार परिभ्रमण करना पड़ता
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गाथा १३१, १३२
है। इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं -
गाहा दोह छंदानं, सामुद्रिक व्याकरन जोयसे जुतं ।
सुरं च स्वास निःस्वासं, चंदं सूरं च गहन पज्जलियं ।। १३१ ।। प्रपंच विभ्रम सहियं, अनेय भेय सरनि संसारे ।
लोक मूड कल रंज, कलुस भाव नंत सरनि संसारे ।। १३२ ।। अन्वयार्थ (गाहा दोह छंदानं) गाथा, दोहा, छंदों के द्वारा (सामुद्रिक व्याकरन जोयस जुत्तं) सामुद्रिक शास्त्र, व्याकरण संस्कृत शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र पढ़ता है (सुरं च स्वास निःस्वासं) श्वासोच्छ्वास के द्वारा प्राणायाम पूरक, रेचक, कुम्भक आदि श्वास क्रिया करता है (चंदं सूरं च गहन पज्जलियं ) चंद्र सूर्य ग्रहण को जानकर ।
(प्रपंच विभ्रम सहियं) प्रपंच विभ्रम सहित होता है (अनेय भेय सरनि संसारे) अनेक प्रकार के संसार परिभ्रमण को बढ़ा लेता है (लोक मूढ़ कल रंज) लोक मूढ़ता के साथ शरीर में रंजायमान रहता है (कलुस भाव नंत सरनि संसारे) ऐसे कलुषित भावों के करने से अनंत संसार का परिभ्रमण करता है ।
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विशेषार्थ - शरीर का मोही अज्ञानी जीव गाथा दोहा छंदों की रचना करता है, सामुद्रिक शास्त्र, व्याकरण शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र पढ़ता है। चंद्रमा और सूर्यग्रहण के द्वारा, भूत भविष्य का शुभाशुभ योग निकालता है । श्वासोच्छ्वास के द्वारा प्राणायाम करता है। शरीर से योग साधना करता है और अनेक प्रकार के प्रपंच विभ्रम बढ़ाता है, यदि भविष्य अच्छा दीखता है। तो बड़ा रंजायमान होता है, यदि भविष्य बुरा दीखता है तो बहुत भ्रम में आकुल व्याकुल चिंतित रहता है व लोक मूढ़ता में फंसकर नाना प्रकार के जप तप पूजा पाठ कराता है, जिससे भविष्य का होने वाला विघ्न टले । शरीर के एकत्व, मोह में फंसा रात-दिन चिंतातुर रहता है। हर एक काम को करते हुए शंकित भयभीत रहता है कि यह कार्य होगा या नहीं, इस तरह इन शास्त्रों
जानकर और अधिक अपनी आकुलता बढ़ा लेता है, हमेशा अशांत उद्विग्न रहता है, कषायों की तीव्रता, कलुषित भावों से खोटे कर्मों का बंध कर अनंत संसार परिभ्रमण को बढ़ा लेता है।
व्याकरणादि शास्त्रों को पढ़ने का सदुपयोग यह था कि आत्म कल्याण
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