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________________ गाथा- १३३,१३४*** * * EKHE E-SHESHES * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * करने का पुरुषार्थ करता । विषय, कषाय, पाप, परिग्रह को छोड़ता परंतु * शरीर के रंजायमान सुखियापने विषयासक्ति में फंसकर अज्ञानी जीव उल्टा अपना अहित करके अनंत संसार बढ़ा लेता है। शरीर के रक्षार्थ अनेक व्रत तप करता है जो आगे गाथा कहते हैं - तर्वच वय संजुतं, कल सहकार अनिस्ट दिस्टि संजुत्तं। तव वय कुमय संजुत्तं, अनेय विभ्रम नरय वीयम्मि॥१३३ ॥ अन्वयार्थ-(तवं च वय संजुत्तं) तप और व्रत में लगा रहता है (कल सहकार अनिस्ट दिस्टि संजुत्तं) शरीर के संयोग में कोई अनिष्ट न हो जाये इसे ही देखने में लगा रहता है (तव वय कुमय संजुत्तं) कुमति पूर्वक व्रत और तप करता रहता है (अनेय विभ्रम) अनेक विभ्रम भय,शंका, कुशंका, चिंताओं में रहता हुआ (नरय वीयम्मि) नरक का बीज बोता है। विशेषार्थ- जिसके भावों में आत्मज्ञान नहीं होता है और न आत्मा के हितकारी मोक्षमार्ग का विचार होता है, वह शरीर के इन्द्रिय सुखों के लिये यदि व्रत और तप पालता है तो उसके अभिप्राय में होता है कि मैं देव हो जाऊँ, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती हो जाऊँ और खूब विषय भोग करूँ, इस भावना से किया हुआ तप या व्रत कुमतिज्ञान सहित होता है। ऐसे तप व व्रत को पालते हुए परिणामों में भोग की तृष्णा रहती है इसके लिये अनेक विभ्रम करता है, नाना प्रकार के कुदेवादि कुगुरुओं के जाल में फंसा रहता है, उनके द्वारा बताये मंत्र-तंत्र पूजा पाठ व्रत उपवास करता है और हमेशा भयभीत शंका कुशंकाओं से ग्रसित चिंतित रहता है। यह परिणाम इतने मोहासक्त होते हैं कि कृष्णादि खोटी लेश्या सहित नरक गति जाने योग्य पापबंध होता है। इस शरीर को आत्मा मानने की भावना अर्थात् यह शरीर ही मैं (आत्मा), अन्य-अन्य देह के पाने काबीज अर्थात् संसार परिश्रमण का कारण है और आत्मा में ही आत्मा की भावना करना अर्थात् इस शरीर से भिन्न में एक अखंड अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा हूँ। ऐसा श्रद्धान शरीर रहित होने का बीज अर्थात् सिद्ध पद पाने का कारण है। बाहरी परिस्थिति कर्मोदय के अनुसार ही बनती है अर्थात् यह शरीरादि कर्मों का ही फल है। धनवत्ता-निर्धनता, निन्दा-स्तुति, आदर-निरादर, यश-अपयश, हानि-लाभ, जन्म-मरण, स्वस्थता-रूग्णता आदि सभी परिस्थितियाँ कर्मों के आधीन हैं। शुभ और अशुभ कर्मों के फलरूप सुखदायी और दु:खदायी परिस्थिति सामने आती रहती है; परंतु उस परिस्थिति से संबंध जोड़कर उसे अपनी मानकर सुखी-दु:खी होना अज्ञान है । कलरंजन दोष से विवेक ढक जाता है, स्वार्थ बुद्धि, भोग बुद्धि, संग्रह बुद्धि रखने से मनुष्य अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाता । वह वर्तमान परिस्थिति को बदलने का उद्यम ही करता है परंतु परिस्थिति को बदलना । अपने वश की बात नहीं है। विवेक की दो मुख्य बातें हैं - १. मैं स्वयं परमात्म स्वरूप हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं होना। २. अभी जो वस्तुएं मिली हुई हैं उन पर अपना कोई आधिपत्य नहीं है। क्योंकि वह पहले अपनी नहीं थीं और बाद में भी अपनी नहीं रहेंगी। शरीर नाशवान है इसको शाश्वत मानना ही दुर्बुद्धि है। इसकी गाथा आगे कहते हैं - कलं सुभावन त्रितं, त्रितं जानेइ अन्यान सहकारं। __ कल रंजन दुवुहि जुत्तं, अजित सहकार दुग्गए पत्तं ।। १३४ ॥ अन्वयार्थ - (कलं सुभाव न नितं) शरीर का स्वभाव शाश्वत नहीं है अर्थात् शरीर क्षणभंगुर नाशवान है (नितं जानेइ अन्यान सहकारं) अज्ञान के कारण शरीर को शाश्वत जानता है (कल रंजन दुवुहि जुत्तं) कलरंजन दोष से दुर्बुद्धि में लगा रहता है (अनित सहकार दुग्गए पत्तं) क्षणभंगुर नाशवान शरीर के सहकार से दुर्गति पाता है। विशेषार्थ - शरीर का स्वभाव नाशवान है। शरीर माता-पिता के संयोग से और पुद्गल परमाणुओं के मेल से बना है, यह पुद्गल परमाणुओं का स्कंधरूप मिट्टी का पुतला है। निरंतर बनता बिगड़ता रहता है, आयु कर्म के आधीन है, नाम कर्म की रचना है। यह एक सा नहीं रहता है, बालक से कुमार, कुमार से युवा, युवा से वृद्ध हो जाता है। कभी रोगी, कभी निरोगी रहता है, एक दिन छूट जाता है, तब सड़ने-गलने लगता है, जला दिया जाता है अथवा गाड़ दिया जाता है। १०३ E-ME ------HEET E-
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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