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*********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
इस शरीर को स्थायी शाश्वत व अपना मानना भारी भूल, महा अज्ञान है। यह तो एक दिन छूट जाने वाला जेल खाना है, जिसकी बुद्धि शरीर के राग में उलझी हुई है वह दुर्बुद्धि का धारी नाना प्रकार राग-द्वेष आदि भाव करके इस नाशवान शरीर के मोह में दुर्गति चला जाता है।
सत्य शाश्वत स्वरूप एक अपना आत्मा है, उसका बोध यथार्थ ज्ञान के उपदेश से होता है। इस नाशवान शरीर को स्थिर वे ही मानते हैं जो बुद्धि रहित हैं व इसे ही आत्मा मानना घोर मोह व मूढ़ता है।
आकाश, वायु, जल, अग्नि व पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन दश का नाम कार्य है। मन, बुद्धि, अहंकार, स्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र, नासिका, वाणी, हस्त, पैर, उपस्थ, गुदा इन तेरह (अंत:करण और बाह्य करण) का नाम करण है। यह सब कर्म प्रकृति के कार्य हैं इसलिये इनके द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं के कर्तापने में भी कर्म प्रकृति की प्रधानता है। कर्म प्रकृति जड़ है, उसकी क्रियावती शक्ति उसमें हो रही है। जैसे- शरीर का बढ़ना, श्वास का आना-जाना, भोजन का पचना आदि क्रियायें स्वतः शरीर में हो रही हैं किंतु मन बुद्धि पूर्वक होने वाली कुछ क्रियाओं- खाना-पीना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, बोलना आदि को साधारण मनुष्य अपने द्वारा की हुई मानता है। वास्तव में संपूर्ण क्रियायें कर्म प्रकृति से ही हो रही हैं, उनमें से कुछ क्रियाओं के साथ अपना संबंध मानना भूल है। मनुष्य वास्तव में स्वयं कर्ता न होते हुए भी अपने को कर्ता मान लेता है, ऐसे माने हुए कर्ता को अहंकार विमूढात्मा कहा है, उसको दुर्मति, दुर्बुद्धि होने से दुर्गति जाना पड़ता है।
शरीर को सत् मानकर प्राणी ऊँची-नीची योनियों में जन्मता-मरता रहता है।
शरीर स्वभाव से अशुचि है यह आगे गाथा में कहते हैं - कलं सहाव समलयं, निम्मल जानेहि सौचि सहकारं ।
मलं च मल उववन्नं, कलरंजन अन्यान सरनि संसारे ।। १३५ ।।
कलं सहाव असुद्धं, स्नानं सौचि सुद्ध जानेहि ।
ते मूढा अन्यानी, कल सहकारेन दुग्गए पत्तं ॥ १३६ ॥
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कलं च असुचि सहावं, एवंदी पुग्गलं सौचि जानेहि । दोषं दोष उपत्ति, अन्मोयं संसार सरनि वीयम्मि ।। १३७ ।।
अन्वयार्थ - (कलं सहाव समलयं) शरीर का स्वभाव मल से भरा हुआ है (निम्मल जानेहि सौचि सहकारं) अज्ञानी इस शरीर को स्नान आदि कराने से निर्मल जानता है (मलं च मल उववन्नं) शरीर मल से भरा हुआ है और इससे मल ही पैदा होता है (कलरंजन अन्यान सरनि संसारे) इस शरीर रंजायमान होने का जो अज्ञानभाव है वह संसार में भ्रमण कराने वाला है।
(कलं सहाव असुद्धं) इस शरीर का स्वभाव ही अशुद्ध है (स्नानं सौचि सुद्ध जानेहि) जो इसे स्नान आदि शुचि करके शुद्ध समझ लेते हैं (ते मूढ़ा अन्यानी) वे मूर्ख अज्ञानी हैं (कल सहकारेन दुग्गए पत्तं) शरीर के सहकार से दुर्गति के पात्र होते हैं ।
(कलं च असुचि सहावं) शरीर तो अशुचि स्वभाव ही है (एयंदी पुग्गलं सौचि जानेहि जल मिट्टी आदि एकेन्द्रिय पुद्गल से धोने से शुचि, शुद्धि जानता है (दोषं दोष उपत्ति) दोष से दोष की उत्पत्ति होती है (अन्मोयं संसार सरनि वयम्मि) जल से या मिट्टी से शरीर पवित्र होता है, ऐसा मानने वाला अज्ञानी संसार परिभ्रमण का बीज बोता है।
विशेषार्थ - यह शरीर मल से उत्पन्न होता है, पिता के वीर्य व माता के रज से इसकी उत्पत्ति है तथा इसके भीतर रुधिर, मांस, हांड, चाम, वीर्य, पीप, मल, मूत्र, पसीना, कृमि जाल आदि मलिन पदार्थ ही भरे हैं। यह इतना घिनावना है कि यदि ऊपर की जरा सी त्वचा निकाल दी जाय तो इसको देखा नहीं जायेगा। इसके नौ द्वारों से निरंतर मल ही निकलता है, एक मुख, दो नासिका छिद्र, दो आंखें, दो कान, दो मध्य के अंग जिनसे गंदगी निकलती रहती है, इसे स्नान आदि करा कर पवित्र मानना अज्ञान है। जैसे- कोयला को कितना ही धोया जावे वह उजला नहीं हो सकता अथवा कीचड़ से कीचड़ धोना ही मूर्खता है, इसी प्रकार शरीर को कितना भी साफ किया जावे शुचि या पवित्र नहीं हो सकता। ऐसे शरीर से राग करना, अपना मानना घोर अज्ञान है, इस अज्ञान से संसार बढ़ता है।
कोई संसारी प्राणी गंगा नदी आदि में स्नान करके अपने शरीर को पवित्र मानते हैं सो ऐसा मानना बुद्धिमानी नहीं है; क्योंकि शरीर को कितना
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