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* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-१३८,१३९------- ही बाहर से धोया जावे वह मल को ही भीतर से निकालता है. ऊपर से कुछ कलंचरूवसंजुत्तं, कल इस्टीअन्यान अन्मोय संजुत्तं। * धुल जाता है परंतु भीतर इसकी गंदगी जरा भी नहीं मिटती है। जैसे- मदिरा
न्यानंकुर अंतरयं, कल सहकारेन सरनि संसारे ॥१३९॥ के भरे घड़े को कितना ही धोया जावे उसमें से मदिरा की गंध दूर नहीं होती,
अन्वयार्थ - (कलं च विप्रिय रूवं) शरीर का स्वरूप अप्रिय, घिनावना * वैसे ही शरीर की अशुचिता कभी नहीं मिटती है।
है (स्थानं सर्वस्य असुद्ध जानेहि) शरीर के सर्व स्थान अशुद्ध होते हैं ऐसा इस शरीर से जो मोह करके इसकी ही सेवा में लगे रहते हैं, धर्म-अधर्म
जानना चाहिये (न्यान सहाव न पिच्छं) अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा को न का विचार छोड़ देते हैं वे अज्ञानी दुर्गति के ही पात्र होते हैं। शरीर को सदा
जानकर (अन्मोयं) जो शरीर का ही आश्रय करता है, शरीर में ही रत रहता है क्षणभंगुर व अशुचि मानकर जो इस शरीर से संयम तप की साधना करके
(अनंत दुष्य वीयम्मि) वह अनंत दु:ख का बीज बोता है। आत्म कल्याण करते हैं वे ही बुद्धिमान हैं।
(कलं च रूव संजुत्त) जो शरीर के रूप में संतुष्ट रहता है (कल इस्टी) शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है, इसे पानी, मिट्टी, राख आदि पुद्गल से
9 शरीर को इष्ट प्रिय मानता है (अन्यान अन्मोय संजुत्तं) वह अज्ञान की धोकर शुद्ध मानना अज्ञान है। दोषी की संगति से दोष ही पैदा होते हैं, शरीर
अनुमोदना कर शरीर में लीन रहता है (न्यानंकुर अंतरयं) इससे ज्ञान के मल सहित अपवित्र है । जो वस्तु शरीर के संसर्ग को प्राप्त होती है वह स्वयं जागरण में अंतराय आता है, भेदज्ञान नहीं होता है (कल सहकारेन सरनि अपवित्र हो जाती है। शरीर स्पर्शित जल, फूल की माला, वस्त्र आदि हर संसारे) शरीर के सहकार करने से संसार में ही भ्रमण करता है। वस्तु स्वयं अपवित्र हो जाती है। जल मिट्टी आदि से शरीर की पवित्रता मानना
विशेषार्थ-शरीर का स्वरूप अप्रिय घिनावना है, इसके सब ही स्थान बाहरी शुद्धि से आत्मा की शुद्धि मानना मिथ्यात्व है। यद्यपि लौकिक शारीरिक
अशुद्ध होते हैं, अज्ञानी कलरंजन दोष की अनुमोदना करता है, शरीर के रूप शुद्धि जल आदि से मानी जाती है तथा गृहस्थ को स्नान आदि भी करना रंग में इतना मोहित होता है कि उसे आत्म स्वरूप का बोध ही नहीं जागता। चाहिये परंतु शारीरिक शुद्धि से आत्मा की शुद्धि मानना, शरीर की क्रिया से शरीर के विषय पोषण में इतना तल्लीन रहता है कि वह आत्मा की बात भी धर्म या मुक्ति मानना मिथ्यात्व है, जो अनंत संसार परिभ्रमण का कारण है। सुनना पसंद नहीं करता है। शरीर के तीव्र राग और सुखियापने में रत रहने
कलरंजन दोष अर्थात् शरीरासक्ति ही संसार परिभ्रमण का कारण है, से अनंत दु:ख का बीज बोता है। जब तक शरीर का राग रहेगा, खाने-पीने विषयादि की चाह रहेगी, तब तक
अज्ञानी जीव शरीर के रूप में संतुष्ट रहता है, शरीर को ही इष्ट मानता न निराकुल, निश्चिंत रह सकते न मुक्ति हो सकती है। शरीर का राग छूटने है, शरीर के विषय भोग व्यसनों में रत रहता है। भेदज्ञान में अंतराय डालता पर ही वीतरागता आती है।
® है। शरीर में अहं बुद्धि रखने से आत्मज्ञान कभी नहीं जागता है। पर्यायबुद्धि मुझे न भोग चाहिये, न धन संग्रह आदि चाहिये ऐसा दृढ निश्चय से शरीर की ही सेवा में रंजायमान रहता है, इससे संसार में ही परिभ्रमण होने पर साधक स्थित प्रज्ञ हो जाता है, स्थिर बुद्धि होने पर स्वत: स्वरूप
करता है। का अनुभव हो जाता है तथा शरीर से संबंध विच्छेद होता है।
अज्ञानी जीव शरीर की संगति में ऐसा एकमेक हो रहा है कि वह अपने शरीर को प्रिय मानना अज्ञानता है जिससे अनंत दुःख भोगना पड़ते
को भूल ही गया है। कर्मों के उदय के निमित्त से जो सुंदर शरीर रूप रंग मिला * हैं, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं -
है, उस रूप ही अपने को मानता है। शरीर के मोह में ऐसा उन्मत्त हो रहा है
कि अशुभ पापकर्म का बंध करके नाना प्रकार के दुःख भोगता है । जन्म, कलं च विप्रिय रूर्व, स्थानं सर्वस्य असुखजानेहि।
मरण, जरा, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग का अपार दुःख भोगता है। आत्मज्ञान ___ न्यान सहाव न पिच्छं, अन्मोयं अनंत दुष्य वीयम्मि ॥१३८ ॥ के बिना अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही रहता है क्योंकि उसको आत्मा के सम्यज्ञान
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当长会长,长》
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