SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-१४०-१४३-H----- -16--15-5-15-3-5 श-52-5 - श्री उपदेश शुद्ध सार जी * की तरफ विश्वास नहीं आता है। शरीर का पूरण गलन स्वभाव है, नाशवान है इसे आगे गाथा में * कहते हैं - गलं च पूरन भावं, अत्रित असरन असुचि जानेहि। न्यानं अंतर दिट्ठी, अन्मोयं कल दुग्गए पत्तं ॥ १४० ॥ अन्वयार्थ - (गलं च पूरन भावं) इस शरीर पुद्गल का स्वभाव ही गलन और पूरण है (अनित असरन असुचि जानेहि) यह नाशवान, अशरण और अपवित्र है (न्यानं अंतर दिट्ठी) शरीर की ओर देखना ही ज्ञान स्वभाव से विमुख करता है (अन्मोयं कल दुग्गए पत्तं) शरीर की तन्मयता से दुर्गति की प्राप्ति होती है। विशेषार्थ - शरीर पुद्गल परमाणुओं का स्कंध है, यह नाम कर्म की रचना है। पुद्गल के स्कंधों में नये परमाणु मिलते हैं, पुराने झड़ते हैं, शरीर में भी सदा नये पुद्गल परमाणु मिलते हैं, पुराने झड़ते हैं, यह एक सा नहीं रहता है। पुद्गल का स्वभाव ही गलन-पूरण रूप है। परमाणु के गुणों में भी परिवर्तन हुआ करता है, इससे पूरण-गलन स्वभाव वहाँ भी प्रगट है। यह शरीर नाशवान अस्थायी है, कभी भी नष्ट हो सकता है । जलना, गलना, मिट्टी में मिलना तो इसका स्वभाव ही है। यह शरीर अशरण है, इसकी कितनी भी रक्षा करो किंतु इसमें रोग बुढ़ापा और मृत्यु तो साथ लगे हैं, जब मरण काल आता है, आयु कर्म का क्षय होता है तब यह एक पल भी नहीं टिक सकता, जीवित से मृत हो जाता है। यह शरीर मल मूत्रादि का घर बड़ा ही अशुचि, अपवित्र है । हाड़ मांस का लोथड़ा, हड्डी का ढांचा है जो बहुत ही घिनावना है। इस शरीर का राग आत्मज्ञान की प्राप्ति में विध्नकारक है। शरीरासक्ति विषयादि सेवन से दुर्गति की प्राप्ति होती है। जो देह के सुख में आसक्त है, वह ध्यान करता हुआ भी विकार रहित नित्य शुद्ध, आत्म तत्त्व का अनुभव नहीं कर पाता है। शरीर के विषयों में रत मन कभी शांत स्थिर नहीं होता। यह शरीर जड़ है, विनाश रूप है, चैतन्य से भिन्न है, जो जीव इस शरीर का ममत्व करता है, वह बहिरात्मा है। इस शरीर * में रोग होते हैं, यह सड़ता है, जलता है, जरा मरण सहित है। ऐसा देखकर जो जीव निज शुद्धात्म स्वरूप को ध्याता है, शरीर से निर्ममत्व निस्पृह ज वीतरागी होता है वह पांचों ही प्रकार के शरीरों से छूट जाता है। शरीर के संयोग से ही घर परिवार आदि का संबंध होता है, इस संदर्भ में आगे गाथा कहते हैं कल सम्बन्ध सरूवं, ग्रह परिवार सयल संमिलियं। जिन वयनं अन्तरयं, कल सुभाव नरय वीयम्मि ॥१४१ ॥ कल सम्बन्ध स उत्तं, पर अप्पा भाव न सुपएस । न्यानंतरं स दिडं, पर अन्मोय सरनि संसारे ॥१४२ ॥ कल सम्बन्ध सुभावं, पर पज्जाव अप्प स उत्तं । अन्यानं मिच्छातं, अन्मोय नरय दुष्य वीयम्मि ।। १४३ ॥ अन्वयार्थ -(कल सम्बन्ध सरूवं) शरीर के सम्बंध का यह स्वरूप है जो (ग्रह परिवार सयल संमिलिय) घर कुटुंब आदि सब संयोग आकर मिल जाते हैं (जिन वयनं अन्तरयं) श्री जिन वचन के ग्रहण में अंतराय पड़ जाता है, धर्म चर्चा में मन नहीं लगता (कल सुभाव) शरीर की तन्मयता से (नरय वीयम्मि) नरक का बीज बोता है। (कल सम्बन्ध स उत्त) शरीर संबंध उसे कहते हैं (पर अप्पा भाव न सुपएस) जो शरीर व पर जीवों को अपना आत्मा मानता है (न्यानंतरं स दिट्ठ) उसे ज्ञान स्वभाव का अंतर अर्थात् आत्मा की भिन्नता दिखाई नहीं देती (पर अन्मोय सरनि संसारे) पर में अपनत्व मानने से संसार परिभ्रमण होता है। (कल सम्बन्ध सुभावं) शरीर के संबंध से ऐसा स्वभाव बन जाता है जिससे (पर पज्जाव अप्प स उत्तं) पर जीवों को और शरीरादि पर्यायों को ही आत्मा कहता है (अन्यानं मिच्छातं) अज्ञान को ही पहिचानता है अर्थात् अज्ञान में ही लिप्त रहता है (अन्मोय नरय दुष्य वीयम्मि) शरीरादि पर की तल्लीनता से नरक के दु:ख का बीज बोता है। विशेषार्थ-शरीर के संबंध से ही घर परिवार आदि का संयोग मिलता है, माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-बहिन आदि सर्व संबंध जुड़ते हैं, जिसका मोह शरीर से है, वह घर कुटुंब परिवार संबंधी मित्र धनादि से तीव्र मोह रखता है। शरीर के संबंधों को अपना मानकर उनके दु:ख में दु:खी व सुख में सुखी क
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy