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गाथा- १४४,१४५***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * रहा करता है, कुटुम्ब परिवार के प्रबंध में व घर के आरंभ-परिग्रह में इतना * उलझ जाता है कि उसे धर्म को समझने की व आत्मज्ञान प्राप्त करने की * फुरसत ही नहीं मिलती है, वह जिनवाणी पर कभी ध्यान ही नहीं देता है।
आत्महित को न समझकर शरीरादि के मोह से नरक जाने योग्य कर्म बांध लेता है।
__ शरीर संबंध में इतनी मूर्छा होती है कि पर जीवों को यही मेरी आत्मा है ऐसा कहता है, उसे कोई भेदभाव दिखाई नहीं देता। भेदज्ञान आत्मज्ञान की बात भी नहीं सुहाती, शरीर के राग रंग में इतना आसक्त हो जाता है कि पुण्य-पाप की कल्पना भी मन से हट जाती है, स्वच्छंद होकर धन एकत्र करके विषय भोगों में ही लगा रहता है, जिससे संसार में ही परिभ्रमण करना पड़ता है।
शरीर संबंध की मूढता में पर जीवों को और शरीरादि को आत्मा कहता है बस यही मैं हूँ और यह सब मेरे हैं, ऐसे अज्ञान, मिथ्यात्व में लिप्त रहने से नरक के दु:खों का बीज बोता है।
कर्म के उदय से शरीरादि संयोग संबंध मिलते हैं, कर्म उदय से राग-द्वेष मोहादि अनेक पर या औपाधिक भाव होते हैं। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि इन पर संयोग शरीरादि अशुद्ध भावों को ही अपना स्वरूप, आत्मा मान लेता है। उसको वीतराग विज्ञान मयी आत्मीक स्वभाव की प्रतीति नहीं आती है। शरीरादि सम्बंध में ऐसी मिथ्याबुद्धि रहती है कि असत् प्रवृत्ति करके अज्ञान पूर्वक नरक जाने योग्य पाप कर्म बांध लेता है।
शरीरादि संबंध में एकत्व अपनत्व की मिथ्याबुद्धि होने से अपने को उसी रूप मानता है, इनसे भिन्न आत्म स्वरूप का बोध नहीं होता है । अज्ञानी अपने को इस प्रकार मानता है -
में सुखी दु:खी में रंक राव, मेरे धन गृहगोधन प्रभाव। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन ॥ तन उपजत अपनी उपज जान,तन नशत आपको नाश मान। रागादि प्रगट ये दु:ख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन ।
कर्मों का बंध यह जीव अपने शुभ व अशुभ भावों से जैसा करता है, * वैसा ही उनका फल यह जीव अकेला ही भोगता है। यदि कोई मोही मानव
कुटुम्ब के मोह में पर को कष्ट देकर धन कमाता है, महान हिंसा, झूठ, चोरी,
कुशीलादि पाप करता है तो इस जीव को अकेले ही नरक में जाकर दु:ख सहना पड़ते हैं, कोई कुटुम्बी जन साथ में नहीं जाते हैं, अपने साथ किसी मित्र, स्त्री या पुत्र को नहीं ले जा सकते हैं।
यह जीव अपने अज्ञान मोह से जैसे आप अकेला संसार की चार गतियों में भ्रमता है, वैसे ही यह सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म का सम्यक् प्रकार आराधन करे तो आप ही अकेला निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
कलरंजन दोष जीव को दुर्गति का पात्र बनाता है तथा वर्तमान में जीव सुखी-दु:खी, चिंतित, संकल्प-विकल्प में रहता है। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैंकल अन्मोय स उत्तं, पर पर्जाव वयन अप्पानं । पर विधं च स उत्तं, न्यानंतरं नरय दुष्य वीयम्मि ॥१४॥ कल संकप्प वियप्पं, कल दिस्टीच अनिस्ट संजुत्तं । न्यान सहाव न दिहं, न्यानं आवर्न दुष्य संतत्ता ॥ १४५ ॥
अन्वयार्थ- (कल अन्मोय स उत्तं) शरीर का आलंबन ऐसा कहा गया है अर्थात् शरीर में एकत्व बुद्धि वाला जीव ऐसा कहता है (पर पर्जाव
वयन अप्पानं) यह पर जीव धनादि शरीर ही मैं आत्मा हूँ (पर विधं च स उत्तं) ल पर की हानि-वृद्धि को अपनी हानि-वृद्धि कहता है अर्थात् शरीर धनादि
कुटुम्ब की वृद्धि को अपनी आत्मा की वृद्धि मानता है (न्यानंतरं नरय दुष्य वीयम्मि) ऐसे मिथ्याज्ञान से नरक के दु:ख का बीज बोता है।
(कल संकप्प वियप्पं) शरीर संबंधी नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प 8 करता है (कल दिस्टी च अनिस्ट संजुत्तं) शरीर दृष्टि अर्थात् शरीर में अहं
बुद्धि रूप श्रद्धा ही अनिष्ट करने वाली है, इससे नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्म करता है (न्यान सहाव न दिट्ठ) उसे अपना ज्ञान स्वभावी आत्मा नहीं दिखता (न्यानं आवर्न दुष्य संतत्ता) ज्ञान के ऊपर आवरण डालकर अर्थात् अपने आत्म स्वरूप को भुलाकर दुःख से संतप्त रहता है।
विशेषार्थ- कलरंजन दोष में लीन जीव. परजीवों को और शरीरादि को ही आत्मा कहता है। शरीर धन परिवार की वृद्धि को अपनी वृद्धि मानता है, इनकी हानि या नाश को अपनी हानि या नाश मानता है, इसी के मद में
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