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****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
प्रेम उमड़ता है, वैसे ही अन्तर में आत्मा के प्रति सच्चा प्रेम उमड़े तो सब भाव कर्म रागादि भाव विला जाते हैं। अंतर में शुद्धात्म स्वरूप की लगन और रुचि होने तथा उसमें लीन होने से सब कर्म बंधोदय क्षय हो जाते हैं।
रागादि भाव मैं नहीं हूँ, यह मेरे नहीं हैं, मैं तो ज्ञायक स्वभावी ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ, ऐसे स्वभाव की प्रतीति पूर्वक अंतर में एकाग्र होने से सारे रागादि भावविला जाते हैं और पूर्व कर्म बंधोदय भी क्षय हो जाते हैं।
प्रश्न- इसके लिये क्या करना चाहिये ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - म्यान मई अन्मोर्य, दंसन सहकार चरन अन्मोयं । तव अन्मोय सहावं, अवयास अन्मोय सिद्धि संपत्तं ॥ १२२ ॥ अन्वयार्थ (न्यान मई अन्मोयं) ज्ञानमयी आत्म स्वरूप का आलंबन, आश्रय करना (दंसन सहकार चरन अन्मोयं ) सम्यक्दर्शन सहित सम्यक्चारित्र का पालन करना (तव अन्मोय सहावं) तपाराधना करना, अपने स्वभाव में लीन रहना ( अवयास अन्मोय) ऐसे सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र तप का आराधन, अभ्यास और आलम्बन लेने से यह रागादि भाव विला जाते हैं (सिद्धि संपत्तं) सिद्धि की संपत्ति, मुक्ति की प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ पूर्व कर्म बंधोदय भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से छूटने के लिये चार आराधना का आराधन करने से सिद्धि मुक्ति की प्राप्ति होती है।
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सम्यक्त्वी जीव अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा में आनंद मानता है, आत्मानुभव की वृद्धि के लिये चारित्र पालने का उत्साह रखता है तथा आत्मा में स्थिरता पाने के लिये तप तपने की अनुमोदना करता है और यह भावना करता है कि मुझे परम ज्ञान केवलज्ञान का लाभ हो जाये, ऐसा सम्यदृष्टि जीव संसार के राग से बिल्कुल विरक्त हो जाता है और आत्मा के ज्ञान स्वभाव के प्रेम में अनुरक्त हो जाता है, इसी का अभ्यास, आलंबन करने से सिद्धि मुक्ति की प्राप्ति होती है।
संयोगरूप - कर्मोदय का लक्ष्य छोड़ने और अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा का आश्रय लेने, अपने सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र मयी शुद्धात्म स्वभाव में रहने से समता आती है, आनंद प्रगट होता है, दुःख का नाश होता है, एक चैतन्य स्वरूप ध्रुवतत्त्व पर दृष्टि देने से मुक्ति मार्ग प्रगट होता है, आत्मा अभेद अखंड ज्ञान मात्र चेतन सत्ता है जिसमें गुण-गुणी के भेद का भी अभाव है उसका आश्रय लेने,
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गाथा १२२, १२३*-*-*-*-*-*-*
उसी में लीन रहने से राग से और कर्मोदय जन्य दुःखों से छुटकारा होता है और सब कर्म संयोग छूट जाते हैं।
सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र और तप यह चार आराधना का आराधन करना ही मुक्ति मार्ग है, इसी से सब रागादि भाव और कर्म संयोग छूट जाते हैं ।
रागादि भाव कर्म, शरीरादि नोकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, ऐसा भेदज्ञान करना, संसार चक्र से छूटने का एक मात्र उपाय है।
प्रश्न- जब आत्मा शरीरादि से भिन्न है फिर यह शरीरादि संयोग में क्यों रहता है ?
समाधान - अपने अज्ञान मोह मिथ्यात्व के कारण शरीरादि संयोग में रहता है।
प्रश्न- इस शरीरादि संयोग में रहने से क्या होता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंकलरंजन दोष
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कलरंजन दोस उवन्नं, कल सहकारं च विधि संजुत्तं । परिनड़ करनुस सहावे, कल लंकित कर्म तिविहि उपवनं ।। १२३ ।।
अन्वयार्थ - (कलरंजन दोस उवन्नं) शरीर में रंजायमान होने से दोषों की उत्पत्ति होती है (कल सहकारं च विधि संजुत्तं) शरीर के संयोग से दोषों की वृद्धि होती है और उसी में लीनता होती है (परिनइ कलुस सहावं) शरीर राग से कलुष भाव, विषय, कषाय, पापादि की परिणति हो जाती है (कल लंक्रित) शरीर में एकत्व होने, जुड़ने से (कर्म तिविहि उववन्नं) तीन प्रकार के कर्म - द्रव्य कर्म, भावकर्म, नोकर्म की उत्पत्ति होती है।
विशेषार्थ शरीर के संयोग से क्या-क्या बुरा परिणाम होता है, वह बताते हैं। शरीर के साथ राग करने से अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं। कलुष भाव-विषय, कषाय, पापादि की परिणति होती है, कलुष भाव मलिन परिणति से द्रव्यकर्म नोकर्म का बंध होता है, जिससे संसार का परिभ्रमण बढ़ता है।
क्रोध, मान, माया, लोभ, विषयादि पापभावों के होने से चित्त में क्षोभ
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