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________________ गाथा - १२१**** * * ** ----------- * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी 4 (संसार सरनि विरयं) संसार परिभ्रमण से विरक्त होना (न्यानं अन्मोय) ज्ञान का * आश्रय, अनुमोदना करना (मुक्ति गमनं च) मुक्ति मार्ग पर चलना, यह शुभ राग है। विशेषार्थ-संसार का राग जनरंजन आदि अशभ राग कहलाता है जो संसार परिभ्रमण दुर्गति का कारण है । आत्म कल्याण की भावना, अपने आत्म स्वरूप का चिन्तवन, संसार से विरक्तता और मुक्त होने की भावना यह शुभ राग कहलाता है, जिससे मुक्ति मार्ग बनता है। जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि राग करना है तो यह राग करो कि मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। ज्ञान स्वभाव का आलम्बन करो, जिन वचनों के श्रद्धान सहित मुक्ति मार्ग पर चलो, यह राग हितकारी है, इससे संसार परिभ्रमण छूटता है, मुक्ति की प्राप्ति होती है। जनरंजन राग भाव से छूटने, संसार परिभ्रमण से बचने का उपाय राग की धारा को मोड़ देना है। जहाँ जन वचनों में रंजायमानपना था वहीं जिनवचनों में रंजायमानपना हो जाये तो मुक्ति का मार्ग बन जाता है, परमात्म स्वरूप से प्रेम होना, संसार से छूटने का उत्साह होना, आत्मज्ञान की रुचि होना, मुक्त होने की भावना होना आदि शुभराग, संसारी प्रपंच जनरंजन रागादि से छुड़ाता है। दुनियां में मेरा ज्ञान प्रसिद्ध होवे, दुनियां मेरी प्रशंसा करे और जो मैं कहता हूँ, उससे दुनियां खुश होवे ऐसा जिसके अंदर अभिमान का प्रयोजन वर्तता है, उसका धारणा रूप ज्ञान भले सच्चा हो तो भी वह वास्तव में अज्ञान है, जनरंजन राग भाव है, जो संसार में परिभ्रमण कराता है। जो अंतर स्वभाव की दृष्टि करे, उसको लक्ष्य करे, उसका आश्रय करे, उसके सम्मुख हो तब ही अतीन्द्रिय शांति आनन्द प्राप्त होता है। जिसे मोक्ष प्रिय है, उसे मोक्ष का कारण प्रिय होता है और बंध का कारण उसे प्रिय नहीं होता। आत्म स्वभाव में अंतर रमण होना वह ही मोक्ष का कारण है और बहिर्मुख प्रवृत्ति होना बंध का ही कारण है। प्रथम अंतर्मुख प्रवृत्ति बराबर रुचि पूर्वक दृढ़ता से जमना चाहिये कि मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, मुझे मुक्त होना है अब संसार में नहीं रहना ऐसा वैराग्य भाव होना चाहिये, बाद में भले ही भूमिकानुसार व्यवहार भी हो परंतु धर्मी * मोक्षार्थी को वह आदरणीय नहीं किंतु वह ज्ञेय रूप से और हेय रूप से है। * निश्चय स्वभाव में अंतर्मुख होने पर बहिर्मुख ऐसे व्यवहार भाव जनरंजन आदि * का निषेध हो जाता है। निज शुद्धात्म स्वरूप परम पारिणामिक भाव में मिथ्यात्व व रागादि भाव हैं ही नहीं, उसमें रुचि पूर्वक तन्मय होने पर मिथ्यात्व रागादि भाव टलता है, अन्य किसी उपाय से यह रागादि भाव नहीं टलता है। प्रश्न-हम यह रागावि भाव करना ही नहीं चाहते परंतु काँवय जन्य होते हैं इसके लिये क्या उपाय है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अंकुर न्यान सहावं, अन्मोयं भाव कम्म विलयंति। न्यानं च परम न्यानं, रागं समयं च कम्म संषिपनं ॥ १२१ ॥ अन्वयार्थ-(अंकुर न्यान सहावं) ज्ञान स्वभाव का अंकुरण होता है अर्थात् मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा ममल ज्ञान स्वभावी हूँ, ऐसा स्व स्वरूप का सम्यज्ञान प्रगट होता है (अन्मोयं) और अपने ज्ञान स्वभाव का आश्रय आलम्बन रहता है, ज्ञानानंद स्वभाव में रहता है (भाव कम्म विलयंति) भाव कर्म-मोह, राग-द्वेषादि भाव विला जाते हैं (न्यानं च परम न्यानं) ज्ञान भाव, परम ज्ञान केवलज्ञान स्वभाव से जुड़ता है (रागं समयं च) ऐसे शुद्धात्म स्वरूप का राग, दृढ श्रद्धा प्रेम होने से (कम्म संषिपन) सब कर्म क्षय हो जाते हैं। विशेषार्थ- ज्ञान स्वभाव का अंकुरण होने अर्थात् मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा ममल ज्ञान स्वभावी हूँ, ऐसा स्व स्वरूप का सम्यकज्ञान प्रगट होने से तथा ज्ञानानंद स्वभाव में रहने से भावकर्म मोह रागादि विला जाते हैं। जब ज्ञान अपने परम ज्ञान केवलज्ञान स्वभाव में एकाग्र होता है, अपने शुद्धात्म स्वरूप की गाढ रुचि श्रद्धा प्रगट होती है तब आत्मानुभव रूपी ध्यान की अग्नि जलती है, जिससे सब कर्म बंधोदय क्षय हो जाते हैं। जिस जीव को अपने सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा का बोध जागता है कि मैं आत्मा निरावरण चैतन्य ज्योति ममल ज्ञान स्वभावी हूँ, उसका उपयोग अतीन्द्रिय होकर उसकी पर्याय में ज्ञान और आनंद खिल जाता है। पूर्व में कभी अनुभव में नहीं आई, ऐसी चैतन्य शांति वेदन में आती है, इस तरह आनंद का अगाध सागर उसकी प्रतीति में, ज्ञान में और अनुभूति में आ जाता है। स्वयं का परम इष्ट, परम ज्ञान स्वभाव उसे प्राप्त होता है और सारे भाव कर्म रागादिभाव तथा कर्म बंधोदय क्षय हो जाते हैं, विला जाते हैं। आत्मा से सच्चा प्रेम होना चाहिये, जैसे- बालक को अपनी माँ का अंतर में 12--E-HEE KHELK
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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