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** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-११९,१२०
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ॐ
* देते, लोगों की कही सुनी हुई बातों को मानते हैं व ऐसे कार्य करते हैं जिनसे लोग * प्रसन्न रहें, उनको हित-अहित, कर्तव्य-अकर्तव्य का, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक में नहीं होता है। उनको आत्मा और अनात्मा के भेदज्ञान की चर्चा नहीं सुहाती है,न 3 उनका लक्ष्य कभी अपने आत्म स्वरूप पर जाता है। वे बहिरात्मा होते हुए
मिथ्याज्ञान की तो सराहना करते हैं परंतु सम्यक्ज्ञान से बिल्कुल विरक्त रहते हैं।
उनका संसार संबंधी राग नहीं मिटता है, मिथ्या श्रद्धान भी नहीं गलता है और विषय भी नहीं छूटते हैं तथा शल्यें भी नहीं मिटती हैं, उनको जिनेन्द्र कथित तत्त्वों में शंका रहती है, उन पर श्रद्धान नहीं लाता है परंतु संसारी कामना वासना हेतु विषयादि पदार्थ मिल जायेंगे, इस लोभ के वशीभूत होकर रागी-द्वेषी कुदेवादि
और परिग्रह धारी बाहरी चमत्कार दिखाने वाले मंत्र-तंत्र करने वाले कुगुरुओं को मानता है, उनके वचनों में गाढ श्रद्धान रखता है, इस तरह मिथ्यादृष्टि जीव अपना संसार परिश्रमण बढ़ाता रहता है। उसे शुद्ध आत्म तत्त्व का श्रद्धान नहीं होता है।
सांसारिक मान बड़ाई, राज्य वैभव आदि कितने ही क्यों न मिल जायें पर उनसे कभी तृप्ति नहीं होती क्योंकि सांसारिक इच्छा का विषय असत् और अनित्य है। इसके विपरीत शुद्धात्म तत्त्व के अनुभव की अभिलाषा सदा पूर्ण ही होती है, क्योंकि शुद्धात्म तत्त्व सत्य और नित्य है।
सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति में सब जीव परतंत्र हैं और किन्हीं दो व्यक्तियों को भी उनकी एक समान प्राप्ति नहीं होती। प्रारब्ध, कर्म की प्रधानता और योग्यता के अनुसार ही वस्तुएं प्राप्त होती हैं। निज शद्धात्म तत्त्व की अनुभूति. प्राप्ति भेदज्ञान करने में सब जीव स्वतंत्र हैं। योग्य-अयोग्य सब इसके अधिकारी हैं और सबको परमात्म पद की समान प्राप्ति होती है अत: सांसारिक पदार्थों की इच्छा करना महान प्रमाद अज्ञान है, जिसका त्याग करना साधकों के लिये आवश्यक है। भेदज्ञान पूर्वक सम्यक्दर्शन सम्यज्ञान होने पर ही राग भाव विलाता है, इसी बात को और स्पष्ट करते हुए आगे गाथा कहते हैंजिन उत्तभावनहु लष्यं, जन उत्तंभाव अन्मोय संजुत्तं। जनरंजन राग सहावं, राग अन्मोय सरनि भावना हुंति ॥ ११९ ॥ अन्वयार्थ - (जिन उत्त भाव नहु लष्यं) जिनेन्द्र कथित भाव भासना पर
रागी लक्ष्य नहीं देता (जन उत्तं भाव अन्मोय संजुत्त) परंतु संसारी अज्ञानी लोगों के कहे हुए पदार्थों व भावों की अनुमोदना करता है (जनरंजन राग सहावं) उसका ऐसा राग स्वभाव बन जाता है कि वह लोगों को ही रंजायमान प्रसन्न करता रहता है (रागं अन्मोय) इस जनरंजन राग में लगे रहने, इसकी ही अनुमोदना करने, आश्रय रखने से (सरनि भावना हुंति) संसार परिभ्रमण की ही भावना होती है।
विशेषार्थ - जनरंजन राग वाला जीव ऐसा विषय कषायों में फंसा रहता है कि उसको वीतराग विज्ञानमय जिनधर्म का मार्ग नहीं सुहाता है, वह जिनेन्द्र के कहे हुए तत्त्व निर्णय, वस्तु स्वरूप पर लक्ष्य नहीं देता, आत्मा की ओर उसका लक्ष्य ही नहीं जाता है परंतु जिनसे धनादि की प्राप्ति हो, विषय भोग के पदार्थ मिल सकें ऐसे राग वर्द्धक, संसार वर्द्धक उपदेश पर लक्ष्य देकर उनकी प्रशंसा करता है। उसका स्वभाव (आदत) ऐसा रागी हो जाता है कि वह जगत के लोगों को ही प्रसन्न रखना चाहता है। वह संसारासक्त आशा तृष्णा के भावों में लगा हुआ संसार परिभ्रमण करता है।
जिसे भवभ्रमण से छूटना हो, उसे अपने को परद्रव्यों से भिन्न. रागादि भावों से भिन्न शुद्ध चैतन्य ज्ञायक स्वभावी निज शुद्धात्मा का निर्णय कर अपने स्वभाव की साधना करना चाहिये तभी वह जनरंजन राग भाव से छूट सकता है।
ज्ञानी को दृष्टि अपेक्षा से चैतन्य एवं राग की अत्यंत भिन्नता भासती है यद्यपि वे ज्ञान में जानते हैं कि राग चैतन्य की पर्याय में होता है परंतु ज्ञानी के अभिप्राय में राग जहर है, काला सांप लगता है। ज्ञानी विभाव के बीच खड़े होने पर भी विभाव से पृथक् न्यारे रहते हैं।
जिसका मन राग के रंग से रंगा हुआ है वह चार गति रूप संसार समुद्र में डांवाडोल होता हुआ कष्ट पाता है।
प्रश्न- यह जनरंजन राग भाव से छटने भव भ्रमण से बचने का क्या उपाय है?
इसके समाधान में सद्गुरु तारण स्वामी आगे गाथा कहते हैं - राग जिनेहि उत्त, अप्पा सुद्धप्प परम अन्मोयं । संसार सरनि विरयं, न्यानं अन्मोय मुक्ति गमनं च ॥१२०॥
अन्वयार्थ - (रागं जिनेहि उत्त) जिनेन्द्र परमात्मा ने राग उसे कहा है (अप्पा सुद्धप्प परम अन्मोयं) आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा है इसका आलंबन करो
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长治长长长长长来
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